जब तक कन्याके संतान नहीं हो, तब तक पिताको उसके यहां भोजन नहीं करना चाहिये। परन्तु कन्याके पुत्र/पुत्री हो जानेके बाद पिता कन्याके यहां भोजन कर सकता है, फिर कोई दोष नहीं है। यही शास्त्रीय मान्यता है।
स्वसुतान्नं च यो भुड़्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
स्वसुता अप्रजा तावन्नाश्नीयात्तद्गृहे पिता।।
अन्नं भुड़्क्ते तु यो मोहात् पूयं स नरकं व्रजेत्।।
(अत्रिसंहिता 301- 302)
अर्थात् जब तक अपनी विवाहिता कन्याकी संतान न हो , तब तक पिता को उसके घर का अन्न नहीं खाना चाहिए। यदि उसके घर का अन्न खाता है, तो नरक में जाता है।
अप्रजायाञ्च कन्यायां न भुञ्जीयात् कदाचन।
दौहित्रस्य मुखं दृष्ट्वा किमर्थमनुशोचसि॥
अर्थात् जब तक कन्या के कोई संतान नहीं है तब तक पिता को उसके यहां भोजन नहीं करना चाहिए और दौहित्र का मुख देखने के बाद भला फिर क्या सोचना।
क्योंकि दौहित्र को तो शास्त्रोंने मातामह, मातामही (नाना - नानी) आदिका श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण आदि करने का विधान किया है। तो जब वे परलोक में दौहित्रके द्वारा दिया गया अन्न जल ग्रहण कर सकते हैं, तो फिर यहां क्यों नहीं?