Sunday, 10 November 2024

रविवार को अक्षय नवमी हो तो क्या करें ? क्या आंवला का पूजन कर सकते हैं ?

"अक्षय नवमी में आंवला के पेड़ की पूजा का विशेष महत्व है। रविवार के कारण लोगों में भ्रम है कि इस दिन आंवला का स्पर्श, दान-पुण्य या सेवन नहीं करना चहिए। लेकिन, यह नियम पूरे कार्तिक माह जो व्रतोपवास एवं नियम करते हैं उनके लिये नहीं है। यह नियम आम दिनों (अक्षयनवमी को छोड़कर) के लिये है। भगवान विष्णु को आंवला अत्यंत प्रिय है। अतः कार्तिक मास में उन्हें अवश्य अर्पण करना चाहिये । आंवला की पूजा के बाद आंवला के पेड़ के नीचे भोजन बनाने का महत्व है। इसके बाद ब्राह्मण को बनाए भोजन खिलाकर परिजनों के साथ प्रसाद के रूप में पकवान ग्रहण किया जाता है। अक्षयनवमी जिसे कूष्माण्ड नवमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन कूष्माण्ड (पेठा) में सोना, चांदी, रुपया इत्यादि छुपाकर गुप्त दान करने का विशेष महत्व है। नाम के अनुसार ही यह दान अक्षय होता है। इस दिन आँवला का दान एवं स्वयं खाना भी पुण्यदायक होता है। आंवला के छाँव में बैठकर भोजन करते समय यदि आंवला का पत्ता भोजन में गिरे तो वह अमृत तुल्य होता है।  पद्य पुराण के अनुसार, कार्तिक शुक्ल नवमी को आंवले वृक्ष की पूजा, भूरा दान, सौभाग्य द्रव्य का दान और वृक्ष के नीचे भोजन करना चाहिए। ऐसा करने से सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में दान के समान फल मिलता है।अक्षय नवमी के दिन किए गए दान-पुण्य का फल अक्षय होता है। 
सामान्य दिनों में रविवार और सप्तमी तिथि पर आंवले के सेवन से बचना चाहिए। साथ ही, शुक्रवार और माह की प्रतिपदा तिथि, षष्ठी, नवमी, अमावस्या तिथि और सूर्य के राशि परिवर्तन वाले दिन (संक्रांति) आंवले का सेवन न करें। 

Monday, 4 November 2024

भीष्मपंचक व्रत क्या है एवं कैसे करें ?

आचार्य सोहन वेदपाठी , लुधियाना (पंजाब)

इस वर्ष भीष्मपंचक का व्रत 11 से 15 नवम्बर 2024 तक होगा। देवप्रबोधिनी एकादशी से यह प्रारम्भ होता है।

विशेष - जब भीष्मपंचक के मध्य किसी तिथि की वृद्धि हो जाये तो एकादशी से प्रारम्भ करके पांच दिन ही स्वीकार किया जाता है। उस स्थिति में भीष्मपंचक की समाप्ति चतुर्दशी को ही होती है। लेकिन जब किसी तिथि का क्षय होता है, तब दशमी से ही प्रारंभ माना जाता है। इस वर्ष यही स्थिति बन रही है।

'भीष्म पंचक' व्रत कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ होता है तथा पूर्णिमा तक चलता है। 
1. भीष्म पंचम व्रत में चार द्वार वाला एक मण्डप बनाया जाता है। 
2. मंडप को गाय के गोबर से लीप कर मध्य में एक वेदी का निर्माण किया जाता है। 
3. वेदी पर तिल रख कर कलश स्थापित किया जाता है।
4. इसके बाद भगवान वासुदेव की पूजा की जाती है। 
5. इस व्रत में कार्तिक शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तिथि तक घी के दीपक जलाए जाते हैं। 
6. भीष्म पंचक व्रत करने वाले को पांच दिनों तक संयम एवं सात्त्विकता का पालन करते हुए यज्ञादि कर्म करना चाहिए।
7. इस व्रत में गंगा पुत्र भीष्म की तृप्ति के लिए श्राद्ध और तर्पण का भी विधान है।

संक्षिप्त कथा - जब महाभारत युद्ध के बाद पाण्डवों की जीत हो गयी , तब श्रीकृष्ण पाण्डवों को भीष्म पितामह के पास ले गये और उनसे अनुरोध किया कि वह पाण्डवों को ज्ञान प्रदान करें। बाण की शैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे भीष्म ने कृष्ण के अनुरोध पर कृष्ण सहित पाण्डवों को राजधर्म, वर्णाश्रमधर्म एवं मोक्षधर्म का ज्ञान दिया। भीष्म द्वारा ज्ञान देने का क्रम एकादशी से लेकर पूर्णिमा तिथि यानि पांच दिनों तक चलता रहा। भीष्म ने जब पूरा ज्ञान दे दिया, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि "आपने जो पांच दिनों में ज्ञान दिया है, यह पांच दिन आज से अति मंगलकारी हो गये हैं। इन पांच दिनों को भविष्य में 'भीष्म पंचक' के नाम से जाना जाएगा।
इन पांच दिनों में अन्न का त्याग करके फलाहार करना चाहिये। भ्रांतिवश कई लोग इसे पांच एकादशियाँ कहकर संबोधित करते है जो कि गलत है। इसके नियम एकादशी जैसे (अन्न का त्याग एवं फलाहार) होने के कारण ही ऐसी भ्रांति बनी है।

Saturday, 12 October 2024

दशहरा का संबंध न राम से है, न ही रावण से। यह विजयादशमी है। आइये आचार्य सोहन वेदपाठी से जानते हैं।

दशहरे का सम्बन्ध न राम से है न रावण से
दशहरा शक्ति पूजा का पर्व है बस
नव दिन की शक्ति आराधना के बाद दशवें दिन शस्त्र पूजा करके विजय की कामना हेतु देवी के रूप विजया का पूजन किया जाता है और यह दशमी के दिन होता है इसीलिये इसे विजयादशमी कहते है
दशों दिशाओं से शक्ति का पूजन करने के कारण विजयादशमी कहते है। दशहरा शब्द आधुनिक पत्रकारों एवं लेखकों ने जोड़ दिया। शेष राम रावण युद्ध का पूरा विवरण सन्दर्भ सहित नीचे लिखा है - 

पद्म पुराण के पातालखंड   इसका विवरण है ‘‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिन)’’ 15 दिन अलग अलग युद्धबंदी 72 दिन चले महासंग्राम में लंकाधिराज रावण का संहार आश्विन शुक्ल दशमी को नहीं चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को हुआ।

घन घमंड गरजत चहु ओरा।
प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।

रामचरित मानस हो, बाल्मीकि रामायण अथवा ‘रामायण शत कोटि अपारा’ हर जगह ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास के प्रमाण मिलते हैं। पद्मपुराण के पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में पहुंचते हैं। परिचय देकर प्रणाम करतेे है।
शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया। उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य का उपदेश देते हुए कहा था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास पहुंचा देंगे।
इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते है- जनक पुरी में धनुषयज्ञ में राम लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र द्वारा पहुंचना और राम द्वारा धनुषभंग कर राम- सीता विवाह का प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया तब विवाह राम 15 वर्ष के और सीता 06 वर्ष की थी विवाहोपरांत वें 12 वर्ष अयोध्या में रहे, 27 वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई के वर मांगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक 3 दिन जल पीकर रहे चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। पांचवें दिन वे चित्रकूट पहुंचे, वहां पूरे 12 वर्ष रहे। 13वें वर्ष के प्रारंभ में राम लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुंचे। जहां शूर्पनखा को कुरूप किया।
माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता का हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया। आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को सम्पाति नामक गिद्ध ने बताया सीता लंका की अशोक - वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने छलांग लगाई , रात में लंका प्रवेश कर खोजबीन करने लगे। कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को वाटिका विध्वंश किया, उसी दिन अक्षय कुमार का वध किया। कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को मेघनाद ने ब्रह्मपाश में बांधकर दरबार में ले गये और लंकादहन किया। हनुमानजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित सभी वानरों ने नाचते गाते 5 दिन मार्ग में लगाये और मार्गशीर्ष (अगहन) कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया।
हनुमान की अगुवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे। 
अगहन कृष्ण अष्टमी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और 7 दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुँचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया।
अगहन शुक्ल चतुर्थी को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर परिचर्चा हुई। सागर से मार्ग याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक 4 दिन अनशन किया। दशमी को अग्निबाण का संधान हुआ तो रत्नाकर (समुद्रदेव) प्रकट हुये और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से त्रयोदशी तक 4 दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चतुर्दशी को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक 3 दिन में वानर सेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को सुक - सारन वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और पहचान करके उन्हें अभयदान दिया।
पौष कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्य अभ्यास किया। पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया। इसके बाद पौष शुक्ल द्वितीया से अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। आचार्य सोहन वेदपाठी मोबाइल - 9463405098
पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश (हनुमान जी) द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटा और राम लक्ष्मण को मुक्त किया।
पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल त्रयोदशी को कंपन बध, पौष शुक्ल चतुर्दशी से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का बध, माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक राम रावण में तुमुल युद्ध हुआ और रावण को भागना पड़ा।
रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक 4 दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया।
कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विषतंतु आदि 5 राक्षसीे का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया।
माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ बध, माघ शुक्ल त्रयोदशी से फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष बध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण और  मेघनाद का युद्ध प्रारंभ हुआ । सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुये एवं उपचार हुआ। इस घटना के कारण फाल्गुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक 5 दिन युद्ध विराम रहा।
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फाल्गुन कृष्ण नवमी से त्रयोदशी तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया।
इसके बाद फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को रावण ने यज्ञ दीक्षा ली और फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया। फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ।
फाल्गुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि राक्षसों का वध हुआ। फाल्गुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुये, सुषेण वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि पर्वत लाये और संजीवनी बूटी के प्रभाव से लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुये।
राम-रावण युद्ध फाल्गुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ प्राप्त हुआ।
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से 18 दिनों तक युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को श्रीराम ने दशानन रावण का संहार करके सायुज्य मुक्ति प्रदान किया। 
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिनों) 15 दिनों का अलग अलग युद्धबंदी रही। 72 दिन चला महासंग्राम और श्रीराम विजयी हुये , चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया।
अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण एवं सीता उत्तर दिशा में उड़े। चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज के आश्रम में पहुंचें। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ।
चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुंचाया जहां अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।

Monday, 16 September 2024

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

एक बार नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने संसार के कल्याणार्थ सूतजी से पूछा-। हे सूत! कराल कलिकाल में लोगों के बालक किस तरह दीर्घायु होंगे सो कहिये? सूतजी बोले-जब द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ था, उसी समय बहुत-सी शोकाकुल स्त्रियों ने आपस मे सलाह की। कि क्या इस कलि में माता के जीवित रहते पुत्र मर जायेंगे? जब वे आपस मे कुछ निर्णय नहीं कर सकीं तब गौतमजी के पास पूछने के लिये गयीं। जब उनके पास पँहुचीं, तो उस समय गौतमजी आनन्द के साथ बैठे थे। उनके सामने जाकर उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तदनन्तर स्त्रियों ने पूछा- 'हे प्रभो! इस कलियुग में लोगों के पुत्र किस तरह जीवित रहेंगे? इसके लिये कोई व्रत या तप हो तो कृपा करके बताइये'। इस तरह उनकी बात सुनकर गौतमजी बोले-'आपसे मैं वही बात कहूँगा, जो मैंने पहले से सुन रखा है'। गौतमजी ने कहा- जब महाभारत युग का अन्त हो गया और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अपने बेटों को मरा देखकर सब पाण्डव बड़े दुःखी हुए तो पुत्र के शोक से व्याकुल होकर द्रौपदी अपनी सखियों के साथ ब्राह्मण-श्रेष्ठ धौम्य के पास गयीं। और उसने धौम्य से कहा-'हे विपेंद्र! कौन -सा उपाय करने से बच्चे दीर्घायु हो सकते हैं, कृपा करके ठीक-ठीक कहिये। धौम्य बोले-सत्ययुग में सत्यवचन बोलनेवाला, सत्याचरण करनेवाला, समदर्शी जीमूतवाहन नामक एक राजा था। एक बार वह अपनी स्त्री के साथ अपनी ससुराल गया और वहीं रहने लगा। एक दिन आधी रात के समय पुत्र के शोक से व्याकुल कोई स्त्री रोने लगी। क्योकिं वह अपने बेटे के दर्शन से निराश हो चुकी थी- उसका पुत्र मर चुका था। वह रोती हुई कहती थी- 'हाय, मुझ बूढ़ी माता के सामने मेरा बेटा मरा जा रहा है।' उसका रुदन सुनकर राजा जीमूतवाहन का तो मानों हृदय विदीर्ण हो गया।
    वह तत्काल उस स्त्री के पास गया और उससे पूछा-'तुम्हारा बेटा कैसे मरा है?' बूढ़ी ने कहा-'गरूड़ प्रतिदिन आकर गाँव के लड़कों को खा जाता है'। इस पर दयालु राजा ने कहा-"माता! अब तुम रोओ मत। आनन्द से बैठो-मैं तुम्हारे बच्चे को बचाने का यत्न करता हूँ'। ऐसा कहकर राजा उस स्थान पर गया, जहाँ गरुड़ आकर प्रतिदिन मांस खाया करता था। उसी समय गरुड़ भी उस पर टूट पड़ा और मांस खाने लगा। जब अतिशय तेजस्वी गरुड़ ने राजा का बायाँ अङ्ग खा लिया तो झटपट राजा ने अपना दाहिना अङ्ग फेर कर गरुड़ के सामने कर दिया। यह देखकर गरुड़जी ने कहा-'तुम कोई देवता हो? कौन हो? तुम मनुष्य तो नही जान पड़ते। अच्छा, अपना जन्म और कुल बताओ'। पीड़ा से व्याकुल मनवाले राजा ने कहा-'हे पक्षिराज! इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है, तुम अपनी इच्छा भर मेरा मांस खाओ'। यह सुनकर गरुड़ रुक गये और बड़े आदर से राजा के जन्म और कुल की बात पूछने लगे। राजा ने कहा-'मेरी माता का नाम है, शैव्या और मेरे पिता का नाम शालिवाहन है। सूर्यवंश में मेरा जन्म हुआ है और जीमूतवाहन मेरा नाम है'। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने कहा-  हे महाभाग! तुम्हारे मन मे जो अभिलाषा हो वह वर माँगों'। राजा ने कहा-'हे पक्षीराज! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो वर दीजिये कि, आपने अब तक जिन प्राणियों को खाया है, वे सब जीवित हो जायें। हे स्वामिन! अबसे आप यहाँ बालकों को न खायें और कोई ऐसा उपाय करें कि जहाँ जो उत्पन्न हों वे लोग बहुत दिनों तक जीवित रहें। धौम्य ने कहा कि, पक्षिराज गरुड़ राजा को वरदान देकर स्वयं अमृत के लिये नागलोक चले। वहाँ से अमृत लाकर उन्होंने उन मरे मनुष्यों की हड्डियों पर बरसाया। ऐसा करने से सबलोग जीवित हो गये, जिनको कि पहले गरुड़ ने खाया था। राजा के त्याग और गरुड़ की कृपा से वहाँवालों का बहुत कष्ट दूर हो गया। उस समय राजा के शरीर की शोभा दूनी हो गयी थी। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने फिर कहा- 'मैं संसार के कल्याणार्थ एक और वरदान दूँगा। आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है। आज ही तुमने यहाँ की प्रजा को जीवन दान दिया है। हे वत्स! अब से यह दिन ब्रह्मभाव हो गया है। जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है वही त्रैलोक्य से पूजित दुर्गा अमृत प्राप्त करने के अर्थ में जीवत्पुत्रिका कहलायी हैं। सो इस तिथि को जो स्त्रियाँ उस जीवत्पुत्रिका की और कुश की आकृति बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और वंश की भी बढ़ती होती रहेगी। हे महाभाग! इस विषय में विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है। 

हे राजन! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करे, यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत न कर शुद्ध अष्टमी को व्रत करे और नवमी में पारण करे। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो फल नष्ट हो ही जायेगा और सौभाग्य तो अवश्य नष्ट हो जायेगा। 

जीमूतवाहन को इस तरह का वरदान देकर गरुड़ वैकुण्ठ धाम को चले गये। और राजा भी अपनी पत्नी के साथ अपने नगर को वापस चले आये। धौम्य द्रौपदी से कहते हैं- 'हे देवी! मैंने यह अतिशय दुर्लभ व्रत तुमको बताया है। इस व्रत को करने से बच्चे दीर्घायु होते हैं। हे देवि! तुम भी पूर्वोक्त विधि से यह व्रत और दुर्गाजी का पूजन करो तो तुम्हें अभिलषित फल प्राप्त होगा।' मुनिराज धौम्य की बात सुनकर द्रौपदी के हृदय में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न हुआ। और पुरवासिनी स्त्रियों को बुलाकर उनके साथ यह उत्तम व्रत किया। गौतम ने कहा- यह व्रत और इसके प्रभाव को किसी एक चील ने सुन लिया और अपनी सखी सियारिन को बतलाया। इसके बाद पीपल वृक्ष की शाखा पर बैठकर उस चील ने और उस वृक्ष  के खोंते में बैठकर सियारिन ने भी व्रत किया। फिर वही मादा चील किसी उत्तम ब्राह्मण के मुँह से यह कथा सुन आयी और पीपल के खोंते में बैठी हुई अपनी सखी को सुनाया। सियारिन ने आधी कथा सुनी थी कि उसे भूख लग गयी और वह उसी समय शव से भरे हुये श्मशान पहुँची। वहाँ उसने इच्छा भर मांस का भोजन किया और चील बिना कुछ खाये-पिये रह गयी और सवेरा हो गया। सवेरे वह गौशाले में गयी और वहाँ गौ का दूध पिया। इस तरह नवमी को उसने पारण किया। कुछ दिनों बाद वे दोनों मर गयीं और अयोध्या में किसी धनी व्यापारी के घर जन्मीं। संयोग से उन दोनों का जन्म एक ही घर मे हुआ, जिसमे सियारिन ज्येष्ठ हुई और चील छोटी। वे दोनों सभी शुभ लक्षणों से युक्त थीं। इसलिये बड़ी लड़की काशीराज के और छोटी उसके मन्त्री के साथ गार्हपत्य अग्नि के सामने विधिपूर्वक ब्याही गयी। पूर्वजन्म के कर्मफल से वह मृगनयनी रानी हुई। जिस किसी भी सन्तान को उत्पन्न करती, वह मर जाती थी और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करनेवाली मन्त्री की पत्नी ने अष्ट वसुओं के सदृश तेजस्वी आठ बेटे उत्पन्न किये और सभी जीवित रह गये। अपनी बहिन के पुत्रों को जीवित देखकर ईर्ष्यावश राजपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि, यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहते हो तो इस मन्त्री के भी पुत्रों को उसी जगह भेज दो जहाँ मेरे बेटे गये हैं अर्थात इन्हें मार डालो। यह सुनकर राजा ने उस मन्त्री के पुत्रों को मारने के लिए कई प्रकार के उद्योग किये। पर मन्त्री- पत्नी ने जीवित्पुत्रिका के पुण्य-बल से बचा लिया। एक दिन राजा ने अपने आदमियों से उन पुत्रों का सिर कटवाकर पिटारी में रखवाया और वह पिटारी उनकी माता(मन्त्री-पत्नी) के पास भेज दिया। किन्तु वे आठों शिर बेशकीमती जवाहरात हो गये। और भले-चंगे वे आठों लड़के अपनी माता के पास वापस चले गये। उनको जीवित देखकर राजपत्नी को बड़ा विस्मय हुआ। अन्त में, वह मन्त्री के पत्नी के पास आयी और उसने पूछा- बहन! तुमने कौन- सा ऐसा पुण्य किया है जिससे बार-बार मारे जाने पर भी तुम्हारे बेटे नहीं मरते। इस पर मन्त्री की पत्नी ने कहा- पूर्वजन्म में मैं चील थी और तुम सियारिन। हमने और तुमने साथ-साथ  जीवित्पुत्रिका का व्रत किया था। तुमने व्रत के नियमों का भली-भाँति पालन नहीं किया था और मैंने किया था, इसी दोष से हे बहिन! तुम्हारे बेटे नहीं जीते हैं। ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवत्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े- बड़े राजा हुए। सूतजी कहते हैं कि सब प्रकार का आनन्द देनेवाला मैंने यह दिव्य व्रत बतलाया। स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हों तो विधिपूर्वक यह व्रत करें।
।।प्रेम से बोलिये जीमूतवाहन की जय।

साभार - पं० जीतेन्द्र तिवारी (मुन्ना बाबा)
प्रतापटांड, वैशाली, बिहार।
सम्पर्क सूत्र- 9771581100

Friday, 13 September 2024

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ? (कोई विद्वान लगता है? )

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः? (कोई विद्वान लगता है?) 
आचार्य सोहन वेदपाठी M - 9463405098
आज आषाढ़ मास के प्रथम दिन ('आषाढस्य प्रथम दिवसे') पर कालिदास से विदुषि पत्नी विद्योत्तमा द्वारा (कालीदास द्वारा काशी से ज्ञान प्राप्ति उपरांत वापसी पर) उच्चारित प्रथम वाक्य के तीन शब्द ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ?' अर्थात - कोई विद्वान लगता है? 

विद्योत्तमा के इस आश्चर्यमिश्रित विस्मयकारी प्रश्न का आशय यह है कि, – “आपने क्या कोई विशेष उल्लेखनीय योग्यता प्राप्त कर ली है! जिससे कि मैं आपका स्वागत, अभिनन्दन और अभिवादन करूँ?"

कालीदास द्वारा ऊँट की चिल्लाहट पर 'ऊष्ट्र:' के स्थान पर ‘ऊट्र:' के गलत उच्चारण करने पर विद्योत्तमा ने कालीदास को पत्नी के लिए सही अर्थों में योग्य पति बनने हेतु, योग्यता प्राप्ति के उपरांत ही, सम्बन्ध की बात रखी, जिससे कि ऐसे योग्य पति से सम्बन्ध बनाने में पत्नी को भी गर्व और गौरव का अनुभव हो। 
जब काशी से विद्वान बन काली दास लौटे, तब उक्त प्रश्न किया गया, जिसका उचित समाधान कारक उत्तर देकर कालीदास ने विद्योत्तमा को संतुष्ट कर उसका सम्मान प्राप्त किया और आगे चल कर उक्त प्रश्न में प्रयुक्त हुए तीनों शब्दों से ही प्रारम्भ कर तीन पृथक्-पृथक् काव्य ग्रंथों की रचना की। 

'अस्ति' शब्द से 'कुमार सम्भव' का पहला श्लोक -

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वागह्यौ
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

'कश्चित्' शब्द से 'मेघदूत' का पहला श्लोक -

कश्चित् कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

अर्थ - कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे। 

'वाग्विशेषः' शब्द से 'रघुवंश' का पहला श्लोक -

'वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ। 
अर्थ - शब्द और अर्थ के समान सर्वदा मिले हुए जगत के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ।

कालीदास ने उक्त के अतिरिक्त अन्य कई काव्य और नाट्य ग्रंथ भी लिखे ।

Saturday, 7 September 2024

कलंक चतुर्थी के चंद्र दर्शन दोष से मुक्ति के उपाय

  विष्णु पुराण के निम्नलिखित मन्त्र का पाठ करने से भी चन्द्र दर्शन दोष का निवारण हो जाता है-
 श्रीकृष्ण एवं स्यमंतक मणि के प्रसंग को सुनने-सुनाने से दोष नहीं लगता ।

चंद्र दर्शन होने पर इस श्लोक का जाप करना चाहिए -

सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हत:।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तक:।।

मंत्रार्थ- सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंह को जाम्बवान ने मारा। हे सुकुमार बालक तू मत रोवे, तेरी ही यह स्यमन्तक मणि है।

जो मनुष्य झूठे आरोप-प्रत्यारोप में फंस जाए, वह इस श्लोक को जपकर आरोप मुक्त हो सकता है।

इस कथा को पढ़ने से भी चन्द्रदर्शन के दोष से मुक्ति होती है।
 
छप्पनवां अध्याय - 
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्याभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी।

राजा परीक्षित ने पूछाः भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?

श्रीशुकदेव जी ने कहाः परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ती से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहाः 'शंख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- 'अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा- 'सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।' परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।

एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, 'बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।' सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। परीक्षित ! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- 'प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरूष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अंदर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं।) परीक्षित !जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा- ऋक्षराज ! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।

तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा- 'हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।

सत्तावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका न हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- 'हाय-हाय ! यह तो बड़े दुःख की बात हुई।'

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा – ‘तुम सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?' शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्लाने लगीं, परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया, जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।

सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिता जी ! हाय पिता जी ! मैं मारी गयी – इस प्रकार पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं। बीच बीच में बेहोश हो जातीं और होश  में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया – यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे। परीक्षित ! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि 'अहो ! हम लोगों पर तो बहुत बड़ी विपत्ती आ पड़ी !'इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे।

जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिए उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा - 'भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ?तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौट जाना पड़ा था।' जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा - 'भाई !ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल पौरूष जानकर भी उनसे वैर विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते है – इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व विधाता भी नहीं समझ पाते, जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में – जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हें-नन्हें बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़ हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाय रखा, मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अदभुत हैं। वे अनन्त अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरूड़चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिए भगवान ने पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमंतक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा - 'हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमंतक मणि तो है ही नहीं। बलराम जी ने कहा - 'इसमे सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमंतक मणि को किसी न किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।' परीक्षित ! यह कहकर यदुवंश शिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिला पुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिय सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवानश्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमंतकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई बन्धुओं के साथ अपने श्वसुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदेहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिए उत्तेजित किया था। इसलिए जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यंत भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परिक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते है कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय। उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा - 'एक बार काशी नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिए जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।' परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि 'इस उपद्रव का यही कारण नहीं है' यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिए उन्होंने मुस्कराते हुए अक्रूर से कहा - 'चाचा जी ! आप दान धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के – उनके नाती ही उन्हें तिलाँजली और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान अक्रूर जी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र – बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बती का सन्देह दूर कर दीजिए और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिए। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिसमें सोने की वेदियाँ बनती हैं। परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्तवना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमंतक मणि अपने जाति-भाईयों को दिखाकर अपना कलंक दूर कर दिया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रम से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह हर प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।

Thursday, 5 September 2024

हरितालिका तीज व्रत की विधि 6 सितम्बर 2024


6 सितम्बर 2024, दिन - शुक्रवार को हरितालिका तीज का व्रत है। हरितालिका तीज का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि (चतुर्थी युक्त तृतीया) को मनाया जाता है।
हरितालिक शब्द का अर्थ - हरित (हरण करना) आलिका (सखी, सहेली) अर्थात् सखी के द्वारा का हरण।

 इस व्रत का पूजन प्रातःकाल (सूर्योदय के बाद लगभग ढाई घंटे का समय) या प्रदोषकाल (सूर्यास्त के बाद लगभग दो घंटे का समय) में करने का विशेष महत्व है। 

भारतीय संस्कारों को आत्मसात किये सौभाग्यवती पत्नी अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा हेतु शिवपार्वती की पूजा कर व्रत रखतीं है । कुंवारी कन्यायें यह व्रत अच्छा घर वर प्राप्त करने हेतु रखती हैं ।
 
 इस दिन भगवान शंकर की पार्थिवलिंग बनाकर पूजन किया जाता है और नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है।
इस निर्जला कठिन व्रतानुष्ठान को हरितालिका इसलिये कहते हैं कि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हरण कर घनघोर जंगल में ले गईं थीं। वहां पार्वती जी ने मिट्टी से पार्थिवलिंग बनाकर पूजन एवं घोर तप किया। जिससे प्रसन्न होकर शंकरजी ने पार्वती को वरदान देने के पश्चात् यह भी कहा था कि - जो स्त्री या कुवांरी इस व्रत को श्रद्धा से करेगी, उसे तुम्हारे समान अचल सुहाग प्राप्त होगा।
   यदि इस दिन कुवांरी कन्या रात्रि जागरण में शिव- पार्वती विवाह का पाठ-परायण करे अथवा पार्वती मंगल स्तोत्र का पाठ करे तो श्रेष्ठ घर वर की प्राप्ति होती है।

                      व्रतकथा
 श्री परम पावन भूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव-पार्वती सभी गणों सहित बाघम्बर पर विराजमान थे। बलभद्र, वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नन्दी, अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढा रहे थे। गन्धर्वगण, किन्नर एवं ऋषिगण भगवान शिव की अनुष्टुपछन्दों से स्तुति गान में संलग्न थे, उसी सुअवसर पर देवी पार्वतीजी ने भगवान शंकर से दोंनो हाथ जोड प्रश्न किया , हे! महेश्वर मेरे बडे सौभाग्य हैं जो मैने आप सरीखे पति का वरण किया , क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने कौन सा ऐसा पुण्य अर्जन किया है ? आप अन्तर्यामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें ।

पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले हे वरानने! तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे मुझे प्राप्त किया है वह अति गुप्त है किन्तु तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूँ। इसकी कथा है जो उस रात्रि कही जाती है। जैसे तारागणों में चन्द्रमा, नवग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में यह हरितालीका व्रत श्रेष्ठ है। 

एक दिन पहले (व्रत वाले दिन से पहले) व्रती स्नान करके व्रत का संकल्प एवं सात्विक भोजन करेंगी। फिर दूसरे दिन (व्रत वाले दिन) के चारों प्रहर व रात्रि के चारों प्रहर शिवपूजन कर होम करतीं है, रात्रि जागरण कर शिव जप , भजन आदि करती हैं फिर तीसरे दिन प्रातः फूलहरा ( सजाया गया मंडप) व पार्थिव या रेणुका के शिव लिंग का विसर्जन कर व्रत खोलती (पारण करती) हैं। 

Monday, 2 September 2024

सोमवती अमावस्या का महत्व एवं व्रत कथा आचार्य सोहन वेदपाठी, व्हाट्सएप्प 9463405098

आज 2 सितम्बर 2024 को सोमवती अमावस्या है। जो महान पुण्य देने वाला है , आइये इसके बारें में जानते हैं।

सोमवती अमावस्या का महत्त्व - 

हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि सोमवार को अमावस्या बड़े भाग्य से ही पड़ती है, पाण्डव पूरे जीवन तरसते रहे, परंतु उनके संपूर्ण जीवन में सोमवती अमावस्या नहीं आई। किसी भी मास की अमावस्या यदि सोमवार को हो तो उसे सोमवती अमावस्या कहा जाता है।
इस दिन  यमुनादि नदियों, मथुरा  आदि तीर्थों में स्नान, गौदान, अन्नदान, ब्राह्मण भोजन, वस्त्र, स्वर्ण आदि दान का विशेष महत्त्व माना गया है। इस दिन गंगा स्नान का भी विशिष्ट महत्त्व है। यही कारण है कि गंगा और अन्य पवित्र नदियों के तटों पर इतने श्रद्धालु एकत्रित हो जाते हैं कि वहां मेले ही लग जाते हैं। सोमवती अमावस्या को गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों में स्नान पहले तो एक धार्मिक उत्सव का रूप ले लेता था।

निर्णय सिंधु व्यास के वचनानुसार इस दिन मौन रहकर स्नान-ध्यान करने से सहस्र गोदान का पुण्य फल प्राप्त होता है। यह स्त्रियों का प्रमुख व्रत है।

सोमवार चंद्रमा का दिन हैं। इस दिन (प्रत्येक अमावस्या को) सूर्य तथा चंद्र एक सीध में स्थित रहते हैं। इसलिए यह पर्व विशेष पुण्य देने वाला होता है। सोमवार भगवान शिव जी का दिन माना जाता है और सोमवती अमावस्या तो पूर्णरूपेण शिव जी को समर्पित होती है।

इस दिन यदि गंगा जी जाना संभव न हो तो प्रात:काल किसी नदी या सरोवर आदि में स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और तुलसी की भक्तिपूर्वक पूजा करें। फिर पीपल के वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करें और प्रत्येक परिक्रमा में कोई वस्तु चढ़ाए। प्रदक्षिणा के समय 108 फल अलग रखकर समापन के समय वे सभी वस्तुएं ब्राह्मणों और निर्धनों को दान करें।

सौजन्य - आचार्य सोहन वेदपाठी
मोबाइल : 9463405098 

सोमवती अमावस्या व्रत की कथा - 

जब युद्ध के मैदान में सारे कौरव वंश का सर्वनाश हो गया, भीष्म पितामह शर-शैय्या पर पड़े हुए थे। उस समय युधिष्ठर भीष्म पितामह जी से पश्चाताप करने लगे, धर्मराज कहने लगे। हे पितामह! दुर्योधन की बुरी सलाह पर एवं हठ से भीम और अर्जुन के कोप से सारे कुरू वंश का नाश हो गया है। वंश का नाश देखकर मेरे हृदय में दिन रात संताप रहता है। हे पितामह! अब आप ही बताइये कि मैं क्या करू, कहाँ जाऊँ, जिससे हमें शीघ्र ही चिरंजीवी संतति प्राप्त हो। पितामह कहने लगे, हे! राजन् धर्मराज मैं तुम्हें व्रतों में शिरोमणि व्रत बतलाता हूँ जिसके करने एवं स्नान करने मात्र से चिरंजीवी संतान एवं मुक्ति प्राप्त होगी। वह है सोमवती अमावस्या का व्रत-हे राजन्! यह व्रतराज (सोमवती अमावस्या का व्रत) तुम उत्तरा से अवश्य कराओ जिससे तीनों लोकों में यश फैलाने वाला पुत्र रत्न प्राप्त होगा। धर्मराज ने कहा, कृपया पितामह इस व्रतराज के बारे में विस्तार से बताइये ये सोमवती कौन है? और इस व्रत को किसने शुरू किया। 
भीष्म जी ने कहा- हे बेटे! कांची नाम की महापुरी है, वहाँ महा पराक्रमी रत्नसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में देवस्वामी नामक ब्राह्मण निवास करता था उसके सात पुत्र एवं गुणवती नाम की कन्या थी। एक दिन ब्राह्मण भिक्षुक भिक्षा माँगने आया। उसकी सातों बहुओं ने अलग-अलग भिक्षा दी और सौभाग्यवती का आर्शीवाद पाया। अंत में गुणवती ने भिक्षा दी। भिक्षुक ब्राह्मण ने उसे धर्मवती होने का आर्शीवाद दिया और कहा- यह कन्या विवाह के समय सप्तपदी के बीच ही विधवा हो जायेगी इसलिए इसे धर्माचरण ही करना चाहिए। गुणवती की माँ धनवती ने गिड़गिड़ाते दीन स्वर में कहा- हे ब्राह्मण! हमारी पुत्री के वैधव्य मिटाने का उपाय कहिए। तब वह भिक्षुक कहने लगा- हे पुत्री! यदि तेरे घर सौमा आ जाए तो उसके पूजन मात्र से ही तेरी पुत्री का वैधव्य मिट सकता है। गुणवती की माँ ने कहा कि पण्डित जी यह सौमा कौन है? कहाँ निवास करती है, क्या करती है? विस्तार से बताइये। भिक्षु कहने लगा- भारत के दक्षिण में समुद्र के बीच एक द्वीप है जिसका नाम सिंहल द्वीप है। वहाँ पर एक कीर्तिमान धोबी निवास करता है। उस धोबी के यहाँ सौमा नाम की स्त्री है, वह तीनों लोकों में अपने सत्य के कारण पतिव्रत धर्म से प्रकाश करने वाली सती है। उसके सामने भगवान एवं यमराज को भी झुकना पड़ता है जो जीव उसकी शरण में जाता है तो उसका क्षण मात्र में ही उद्धार हो जाता है। सारे दुष्कर्मों, पापों का विनाश हो जाता है, अथाह सुख वैभव की प्राप्ति हो जाती है। तुम उसे अपने घर ले आओ तो आपकी बेटी का वैधव्य मिट जाएगा।
देवस्वामी के सबसे छोटे पुत्र शिवस्वामी अपनी बहिन को साथ लेकर सिंघल द्वीप को गया। रास्ते में समुद्र के समीप रात्रि में गृद्धराज के यहाँ विश्राम किया। सुबह होते ही उस गृद्धराज ने उन्हें सिंघलद्वीप पहुँचा दिया और वे सौमा के घर के समीप ही ठहर गये। इसके बाद वह दोनों भाई बहिन प्रात: काल के समय उस धोबी की पत्नी सोमा के घर की चौक को साफ़ कर उसे प्रतिदिन लीप पोत कर सुन्दर बनाते थे और उसकी देहरी पर प्रतिदिन आटे का चौक पूजकर अरहैन डाला करते थे। उसी समय से आज भी देहरी पर अरहैन डालने की प्रथा चली आ रही है। इस प्रकार इसे करते करते उन्हें वहाँ एक साल बीत गया। इस प्रकार की स्वच्छता को देखकर सोमा ने विस्मित हो कर अपने पुत्रों एवं पुत्रवधुओं से पूछा कि यहाँ कौन झाडू लगाकर लीपा पोती करता है कौन अरहैन डालता है मुझे बताओ उन्होंने कहा हमें नहीं मालूम और न ही हमने किया है तब एक दिन उस धोबिन ने रात में छिपकर पता किया तो ज्ञात हुआ कि एक लड़की आँगन में झाडू लगा रही है और एक लड़का उसे लीप रहा है। सौमा ने उन दोनों को पूछा तुम कौन हो तो उन्होंने कहा हम दोनों भाई बहन ब्राह्मण हैं। सौमा ने कहा तुम्हारे इस कार्य से मैं जल गई, मैं बर्बाद हो गयी इस पाप से मेरी जाने क्या दशा होगी हे विप्र मैं धोबिन हूँ आप ब्राह्मण हैं फिर आप यह विपरीत कार्य क्यों कर रहे हो। शिवस्वामी ने कहा यह गुणवती मेरी बहिन है इसके विवाह के समय सप्तवदी के बीच वैधव्य योग पड़ा है। आप के पास रहने से वैधव्य योग का नाश हो सकता है इसलिए हम यह दास कर्म कर रहे हैं। सोमा ने कहा अब आगे से ऐसा मत करना मैं तुम्हारे साथ चलूँगी। 
सोमा ने अपनी वधुओं से कहा मैं इनके साथ जा रही हूँ यदि मेरे राज्य में मेरा व्यक्ति मर जाए जब तक मैं लौटकर न आ जाऊँ तब तक उसका क्रिया कर्म मत करना और उसके शरीर को सुरक्षित रखना किसी के कहने पर जला मत देना। ऐसा कह दोनों को लेकर समुद्र मार्ग से होकर कांची नगरी में पहुँच गयी। सोमा को देखकर धनवती ने प्रसन्न हो उसकी पूजा अर्चना की सोमा ने अपनी मौजूदगी में गुणवती का विवाह रुद्र शर्मा के साथ सम्पन्न करा दिया फिर वैवाहिक मंत्रों के साथ हवन करवा दिया। उसके बाद सप्तसदी के बीच रुद्र शर्मा की मृत्यु हो गयी अर्दना बहिन को विधवा जानकर सारे घरवाले रोने लगे किन्तु सोमा शांत रही। सोमा ने अति विलाप देखकर अपना व्रतराज सत्य समझाया और व्रतराज के प्रभाव से होने वाला मृत्यु विनाशक पुष्प विधि पूर्वक संकल्प करके दे दिया। रुद्र शर्मा व्रतराज के प्रभाव से शीघ्र जीवित हो गया। उसी बीच उस सोमा के घर में पहले उसके लड़के मरे फिर उसका पति मरा फिर उसका जमाता भी मर गया। सोमा ने अपने सत्य से सारी स्थिति जान ली वह घर चलने लगी। उस दिन सोमवार का दिन था अमावस्या की तिथिभी थी, रास्ते में सोमा ने नदी के किनारे स्थित एक पीपल  के पेड़ के पास जाकर नदी में स्नान किया और विष्णु भगवान की पूजा करके शक्कर हाथ में लेकर 108 प्रदाक्षिणाऐं पूरी की। भीष्म जी बोले जब सोमा ने हाथ में शक्कर लेकर 108वीं प्रदक्षणा पूरी की तभी उसके पति जमाता और पुत्र भी सभी जीवित हो गये और वह नगर लक्ष्मी से परिपूर्ण हो गया। विशेष कर उसका घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। चारों ओर हर्षोल्लास छा गया। भीष्म जी कहने लगे हमने यह वृतराज का फल विस्तार से कह सुनाया।
यदि सोमवार युक्त अमावस्या अर्थात सोमवती अमावस्या हो तो पुण्यकाल देवताओं को भी दुर्लभ है। तुम भी यह व्रत धारण करो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हे अर्जुन कलियुग में जो सतिया सोमवती के चरित्र का अनुशरण करेंगी, सोमवती के गुणों का गुणवान करेंगी, वह संसार में सुयश प्राप्त करेगी। जो व्यक्ति सोम के आदर्शो का अनुसरण करेगा, धोबियों को धन देगा, सोमवती अमावस्या के दिन व्रतराज के समय धोबियों को यथा दक्षिणा देगा तथा भोज करायेगा, धोबी के बालक बालिकाओं को पुस्तक दान करेगा, वह सदा अनरता को प्राप्त करेगा। विवाह के समय कोई भी वर्ग की कन्या की माँग में सिन्दूर धोबी की सुहागिन स्त्री से भरवायेगा उसको स्वर्ण या रत्न दान करेगा तो उसकी कन्या का सुहाग दीर्घायु होता है तथा वैधव्य योग का प्रभाव नष्ट हो जाता है, जो धोबी की कन्याओं का अपमान करेगा चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों न हो जन्म जन्म तक नरक में पड़ा रहेगा। 
जब उस ब्राह्मण ने अद्भुत चमत्कार देखा तो वह सोमा के चरणों में गिर गया धूप, दीप, पुष्प, कपूर से आरती की विभिन्न प्रकार से पूजा अर्चना की बार-बार जगत पूज्य, सर्वशक्तिमान हो युगों-युगों तक आपकी पूजा यह ब्राह्मण वंश करेगा जो उपकार आपने किया है वह भुलाने योग्य नहीं है आपके साथ-साथ आपके वंश की जो सतियां आपके चरित्र का अनुसरण करेंगी उसकी आपकी ही भाँति युगों-युगों तक पूजा होगी।

Friday, 24 May 2024

पिता बेटी के ससुराल का अन्न कब ग्रहण कर सकता है? आचार्य सोहन वेदपाठी, संपर्क सूत्र - 9463405098

जब तक कन्याके संतान नहीं हो, तब तक पिताको उसके यहां भोजन नहीं करना चाहिये। परन्तु कन्याके पुत्र/पुत्री हो जानेके बाद  पिता कन्याके यहां भोजन कर सकता है, फिर कोई दोष नहीं है। यही शास्त्रीय मान्यता है।

 स्वसुतान्नं च यो भुड़्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
 स्वसुता अप्रजा तावन्नाश्नीयात्तद्गृहे पिता।।
 अन्नं भुड़्क्ते तु यो मोहात् पूयं स नरकं व्रजेत्।।
                                    (अत्रिसंहिता 301- 302)
अर्थात् जब तक अपनी विवाहिता कन्याकी संतान न हो , तब तक पिता को उसके घर का अन्न नहीं खाना चाहिए। यदि उसके घर का अन्न खाता है, तो नरक में जाता है।

 अप्रजायाञ्च कन्यायां न भुञ्जीयात् कदाचन।
 दौहित्रस्य मुखं दृष्ट्वा किमर्थमनुशोचसि॥

अर्थात्  जब तक कन्या के कोई संतान नहीं है तब तक पिता को उसके यहां भोजन नहीं करना चाहिए और दौहित्र का मुख देखने के बाद भला फिर क्या सोचना। 
क्योंकि दौहित्र को तो शास्त्रोंने मातामह, मातामही (नाना - नानी) आदिका श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण आदि करने का विधान किया है। तो जब वे परलोक में दौहित्रके द्वारा दिया गया अन्न जल ग्रहण कर सकते हैं, तो फिर यहां क्यों नहीं?

Tuesday, 30 April 2024

आठ प्रकार के विवाह कौन - कौन से है ?

आचार्य सोहन वेदपाठी, ज्योतिषाचार्य, वेदाचार्य, व्यकरणाचार्य 

सनातन धर्म में कितने प्रकार के विवाहों के बारे में वर्णन किया गया है ? 


अर्थात् विवाह आठ प्रकार के होते हैं। ब्रह्म, दैव,आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। जिन्हें निम्न रूप में परिभाषित किया गया है-

१ ब्रह्म विवाह - वर एवं कन्या दोनो यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान एवं सुशील हो, उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ब्रह्म विवाह कहलाता है। गार्गी-याज्ञवल्क्य , राम-सीता, आदि का विवाह इसी प्रकार का है।

२ दैव विवाह - विस्तृत यज्ञ करने मे ऋत्विक् कर्म करते हुए जमाता को अलंकार युक्त कन्या का देना दैव विवाह कहलाता है। ( अविवाहित एवं ब्रह्मचारी यज्ञकर्ता को कन्या भेंट करना इस तरह का विवाह है)। किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्ठान) के मूल्य के रूप में अपनी कन्या को दान में दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है।

३ आर्ष विवाह - वर से कुछ द्रव्य लेकर किया गया विवाह आर्ष विवाह कहलाता है। (मुस्लिमों का निकाह इस तरह का कहा जा सकता था लेकिन 4–4 निकाह गलत है, 1 निकाह की दृष्टि से आर्ष विवाह है)

४ प्रजापत्य विवाह - दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के लिये होना प्रजापत्य विवाह कहलाता है।( अर्जुन-सुभद्रा विवाह इसी दृष्टि का विवाह है)

५ आसुरी विवाह - कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना 'आसुरी विवाह' कहलाता है।

६ गान्धर्व विवाह - अनियम, असमय, किसी कारण से वर-कन्या का इच्छापूर्वक परस्पर संयोग होना गान्धर्व विवाह है। (भीम-हिडिंबा का विवाह, आजकल का लिव-इन या कोर्ट मैरिज इसके अन्तर्गत आते है)

७ राक्षसी विवाह - कन्या की सहमति के बिना, उसका अपहरण करके जबरदस्ती या कपट से विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है।

८ पैशाच विवाह - कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना 'पैशाच विवाह' कहलाता है। इसमें कन्या के परिजनों की हत्या तक कर दी जाती हैं।

Tuesday, 26 March 2024

स्वप्न तथा उसके संभावित फल जानें

स्वप्न तथा उनसे प्राप्त होने वाले संभावित फल
1- सांप दिखाई देना- धन लाभ
2- नदी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
3- नाच-गाना देखना- अशुभ समाचार मिलने के योग
4- नीलगाय देखना- भौतिक सुखों की प्राप्ति
5- नेवला देखना- शत्रुभय से मुक्ति
6- पगड़ी देखना- मान-सम्मान में वृद्धि
7- पूजा होते हुए देखना- किसी योजना का लाभ मिलना
8- फकीर को देखना- अत्यधिक शुभ फल
9- गाय का बछड़ा देखना- कोई अच्छी घटना होना
10- वसंत ऋतु देखना- सौभाग्य में वृद्धि
11- स्वयं की बहन को देखना- परिजनों में प्रेम बढऩा
12- बिल्वपत्र देखना- धन-धान्य में वृद्धि
13- भाई को देखना- नए मित्र बनना
14- भीख मांगना- धन हानि होना
15- शहद देखना- जीवन में अनुकूलता
16- स्वयं की मृत्यु देखना- भयंकर रोग से मुक्ति
17- रुद्राक्ष देखना- शुभ समाचार मिलना
18- पैसा दिखाई- देना धन लाभ
19- स्वर्ग देखना- भौतिक सुखों में वृद्धि
20- पत्नी को देखना- दांपत्य में प्रेम बढ़ना
21- स्वस्तिक दिखाई देना- धन लाभ होना
22- हथकड़ी दिखाई देना- भविष्य में भारी संकट
23- मां सरस्वती के दर्शन- बुद्धि में वृद्धि
24- कबूतर दिखाई देना- रोग से छुटकारा
25- कोयल देखना- उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति
26- अजगर दिखाई देना- व्यापार में हानि
27- कौआ दिखाई देना- बुरी सूचना मिलना
28- छिपकली दिखाई देना- घर में चोरी होना
29- चिडिय़ा दिखाई देना- नौकरी में पदोन्नति
30- तोता दिखाई देना- सौभाग्य में वृद्धि
31- भोजन की थाली देखना- धनहानि के योग
32- इलाइची देखना- मान-सम्मान की प्राप्ति
33- खाली थाली देखना- धन प्राप्ति के योग
34- गुड़ खाते हुए देखना- अच्छा समय आने के संकेत
35- शेर दिखाई देना- शत्रुओं पर विजय
36- हाथी दिखाई देना- ऐेश्वर्य की प्राप्ति
37- कन्या को घर में आते देखना- मां लक्ष्मी की कृपा मिलना
38- सफेद बिल्ली देखना- धन की हानि
39- दूध देती भैंस देखना- उत्तम अन्न लाभ के योग
40- चोंच वाला पक्षी देखना- व्यवसाय में लाभ
41- स्वयं को दिवालिया घोषित करना- व्यवसाय चौपट होना
42- चिडिय़ा को रोते देखता- धन-संपत्ति नष्ट होना
43- चावल देखना- किसी से शत्रुता समाप्त होना
44- चांदी देखना- धन लाभ होना
45- दलदल देखना- चिंताएं बढऩा
46- कैंची देखना- घर में कलह होना
47- सुपारी देखना- रोग से मुक्ति
48- लाठी देखना- यश बढऩा
49- खाली बैलगाड़ी देखना- नुकसान होना
50- खेत में पके गेहूं देखना- धन लाभ होना
51- किसी रिश्तेदार को देखना- उत्तम समय की शुरुआत
52- तारामंडल देखना- सौभाग्य की वृद्धि
53- ताश देखना- समस्या में वृद्धि
54- तीर दिखाई- देना लक्ष्य की ओर बढऩा
55- सूखी घास देखना- जीवन में समस्या
56- भगवान शिव को देखना- विपत्तियों का नाश
57- त्रिशूल देखना- शत्रुओं से मुक्ति
58- दंपत्ति को देखना- दांपत्य जीवन में अनुकूलता
59- शत्रु देखना- उत्तम धनलाभ
60- दूध देखना- आर्थिक उन्नति
61- धनवान व्यक्ति देखना- धन प्राप्ति के योग
62- दियासलाई जलाना- धन की प्राप्ति
63- सूखा जंगल देखना- परेशानी होना
64- मुर्दा देखना- बीमारी दूर होना
65- आभूषण देखना- कोई कार्य पूर्ण होना
66- जामुन खाना- कोई समस्या दूर होना
67- जुआ खेलना- व्यापार में लाभ
68- धन उधार देना- अत्यधिक धन की प्राप्ति
69- चंद्रमा देखना- सम्मान मिलना
70- चील देखना- शत्रुओं से हानि
71- फल-फूल खाना- धन लाभ होना
72- सोना मिलना- धन हानि होना
73- शरीर का कोई अंग कटा हुआ देखना- किसी परिजन की मृत्यु के
योग
74- कौआ देखना- किसी की मृत्यु का समाचार मिलना
75- धुआं देखना- व्यापार में हानि
76- चश्मा लगाना- ज्ञान में बढ़ोत्तरी
77- भूकंप देखना- संतान को कष्ट
78- रोटी खाना- धन लाभ और राजयोग
79- पेड़ से गिरता हुआ देखना किसी रोग से मृत्यु होना
80- श्मशान में शराब पीना- शीघ्र मृत्यु होना
81- रुई देखना- निरोग होने के योग
82- कुत्ता देखना- पुराने मित्र से मिलन
83- सफेद फूल देखना- किसी समस्या से छुटकारा
84- उल्लू देखना- धन हानि होना
85- सफेद सांप काटना- धन प्राप्ति
86- लाल फूल देखना- भाग्य चमकना
87- नदी का पानी पीना- सरकार से लाभ
88- धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना- यश में वृद्धि व पदोन्नति
89- कोयला देखना- व्यर्थ विवाद में फंसना
90- जमीन पर बिस्तर लगाना- दीर्घायु और सुख में वृद्धि
91- घर बनाना- प्रसिद्धि मिलना
92- घोड़ा देखना- संकट दूर होना
93- घास का मैदान देखना- धन लाभ के योग
94- दीवार में कील ठोकना- किसी बुजुर्ग व्यक्ति से लाभ
95- दीवार देखना- सम्मान बढऩा
96- बाजार देखना- दरिद्रता दूर होना
97- मृत व्यक्ति को पुकारना- विपत्ति एवं दुख मिलना
98- मृत व्यक्ति से बात करना- मनचाही इच्छा पूरी होना
99- मोती देखना- पुत्री प्राप्ति
100- लोमड़ी देखना- किसी घनिष्ट व्यक्ति से धोखा मिलना
101- गुरु दिखाई देना- सफलता मिलना
102- गोबर देखना- पशुओं के व्यापार में लाभ
103- देवी के दर्शन करना- रोग से मुक्ति
104- चाबुक दिखाई देना- झगड़ा होना
105- चुनरी दिखाई देना- सौभाग्य की प्राप्ति
106- छुरी दिखना- संकट से मुक्ति
107- बालक दिखाई देना- संतान की वृद्धि
108- बाढ़ देखना- व्यापार में हानि
109- जाल देखना- मुकद्में में हानि
110- जेब काटना- व्यापार में घाटा
111- चेक लिखकर देना- विरासत में धन मिलना
112- कुएं में पानी देखना- धन लाभ
113- आकाश देखना- पुत्र प्राप्ति
114- अस्त्र-शस्त्र देखना- मुकद्में में हार
115- इंद्रधनुष देखना- उत्तम स्वास्थ्य
116- कब्रिस्तान देखना- समाज में प्रतिष्ठा
117- कमल का फूल देखना- रोग से छुटकारा
118- सुंदर स्त्री देखना- प्रेम में सफलता
119- चूड़ी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
120- कुआं देखना- सम्मान बढऩा
121- अनार देखना- धन प्राप्ति के योग
122- गड़ा धन दिखाना- अचानक धन लाभ
123- सूखा अन्न खाना- परेशानी बढऩा
124- अर्थी देखना- बीमारी से छुटकारा
125- झरना देखना- दु:खों का अंत होना
126- बिजली गिरना- संकट में फंसना
127- चादर देखना- बदनामी के योग
128- जलता हुआ दीया देखना- आयु में वृद्धि
129- धूप देखना- पदोन्नति और धनलाभ
130- रत्न देखना- व्यय एवं दु:ख 131- चंदन देखना- शुभ समाचार
मिलना
132- जटाधारी साधु देखना- अच्छे समय की शुरुआत
133- स्वयं की मां को देखना- सम्मान की प्राप्ति
134- फूलमाला दिखाई देना- निंदा होना
135- जुगनू देखना- बुरे समय की शुरुआत
136- टिड्डी दल देखना- व्यापार में हानि
137- डाकघर देखना- व्यापार में उन्नति
138- डॉक्टर को देखना- स्वास्थ्य संबंधी समस्या
139- ढोल दिखाई देना- किसी दुर्घटना की आशंका
140- मंदिर देखना- धार्मिक कार्य में सहयोग करना
141- तपस्वी दिखाई- देना दान करना
142- तर्पण करते हुए देखना- परिवार में किसी बुर्जुग की मृत्यु
143- डाकिया देखना- दूर के रिश्तेदार से मिलना
144- तमाचा मारना- शत्रु पर विजय
145- उत्सव मनाते हुए देखना- शोक होना
146- दवात दिखाई देना- धन आगमन
147- नक्शा देखना- किसी योजना में सफलता
148- नमक देखना- स्वास्थ्य में लाभ
149- कोर्ट-कचहरी देखना- विवाद में पडऩा
150- पगडंडी देखना- समस्याओं का निराकरण
151- सीना या आंख खुजाना- धन लाभ

Wednesday, 13 March 2024

योगिनी दशा क्या होती है एवं कैसे निकालें ?

जिस नक्षत्र में जन्म हों, अश्विनी से गिनकर प्राप्त संख्या में तीन जोडकर आठ से भाग देने से जो शेष बचे उस शेष संख्या के तुल्य-संख्यक मंगला आदि योगिनी दशा समझें, उसी पर से मनुष्य का स्पष्ट शुभाशुभ फल होता हैं।

योगिनी दशाओं के नाम-:

मंगला पिंगला धान्या भ्रामरी भद्रिका तथा।
उल्का सिद्धा संकटा च एतासां नामवत्फलम्।।

१, मंगला, २, पिंगला, ३, धान्या, ४, भ्रामरी, ५, भद्रिका, ६, उल्का, ७, सिद्धा और ८, संकटा यह आठो योगिनी हैं। इनके नामवत् शुभाशुभ फल जानना चाहिए अर्थात् मंगला, धान्या, भद्रिका एवं सिद्धा इन चार विषम संख्यक योगिनियों की दशायें शुभ होती हैं और शेष चार सम संख्यक योगिनियों की दशायें अशुभ होती हैं।

योगिनी दशा वर्ष संख्या तथा अन्तर्दशा साधन-:

एकं द्वौ गुणवेदवाणरससप्ताष्टांकसंख्याः क्रमात्
स्वीयस्वीयदशा विपाकसमये ज्ञेयं शुभं वाऽशुभम्।
षट्त्रिंशैर्विभजेद्दिनीकृतमथैकद्वित्रिवेदेषुषट्
सप्ताष्टघ्नदशा भवेयुरिति ता एवं दशान्तर्दशाः।।

उक्त मंगला आदि आठ योगिनियों के क्रम से १,२,३,४,५,६,७,८ ये दशा वर्षमान हैं, इसी के अनुसार अपनी-अपनी दशा में उक्त योगिनियों के शुभ या अशुभ फल समझें। दशामान को दिनात्मक बनाकर पृथक् - पृथक् दशावर्ष संख्या से गुणाकर गुणनफल में ३६ के भाग देनें से लब्धि  दिनादि अन्तर्दशा होती हैं।

ज्योतिष सीखने या जानकारी के लिये आप मुझसे संपर्क करें। आचार्य सोहन वेदपाठी, लुधियाना व्हाट्सएप्प 9463405098 पर संपर्क करें।
उदाहरण-:१ किसी का जन्म नक्षत्र हस्त हैं तो अश्विनी से उसकी संख्या १३ में ३ जोडने से १६ हुई इसमें ८ के भाग से शेष शून्य हुआ, अर्थात् आठ ही शेष बचा, इसलिए मंगला आदि क्रम से आठवीं संकटा की दशा में जन्म हुआ।
उदाहरण-: २ किसी का जन्म नक्षत्र आर्द्रा हैं तो अश्विनी से आर्द्रा की संख्या ६ में ३ जोडने से ९ हुई, इसमें आठ के भाग से १ शेष बचा इसलिए मंगला की दशा में जन्म हुआ, अर्थात् आर्द्रा से जन्म नक्षत्र तक जो संख्या हो उसमें ८ से भाग देने से शेष तुल्य संख्यक मंगला आदि योगिनी दशा में जन्म जानें। इस प्रकार आर्द्रा से रेवती तक २२ नक्षत्रों में मंगलादिओं की दशा होगी, अश्विनी से मृगशिर्ष तक ५ नक्षत्रों में भ्रामरी से संकटा तक पाँच योगिनिओं की दशा होगी।

अंतर्दशा साधन के लिये एक अन्य सूत्र -

महादशा और अन्तर्दशा के वर्षों को गुना करके गुणनफल को १० से गुणा करने पर अंतर्दशा के दिनादि प्राप्त होंगे। ३० से ज्यादा होने पर ३० का भाग देकर महीना एवं शेष को दिन समझें।

Saturday, 24 February 2024

घाघ के वचन अनुसार आहार एवं कृषि विज्ञान

"
कृषि एवं मौसम वैज्ञानिक- घाघ की नीतिपरक दोहे - 
-----------------------------------------------
1- चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ में पंथ आषाढ़ में बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वारें दूध न कातिक मही।
मगह न जारा पूष घना, माघे मिश्री फागुन चना। 

घाघ! कहते हैं, चैत में गुड़, वैशाख में तेल, ज्येष्ठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में हरड़ साग, भादों में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में मट्ठा (लस्सी), मार्गशीर्ष (अगहन) में जीरा, पौष (पूष) में धनियां, माघ में मिश्री, फाल्गुन में चने खाना हानिप्रद होता है।

 2-जाको मारा चाहिए बिन मारे बिन घाव। 
वाको  यही बताइये घुइया पूरी  खाव।।

घाघ! कहते हैं, यदि किसी से शत्रुता हो तो उसे अरबी की सब्जी व पुड़ी खाने की सलाह दो। इसके लगातार सेवन से उसे कब्ज की बीमारी हो जायेगी और वह शीघ्र ही मरने योग्य हो जायेगा।

3- पहिले जागै पहिले सौवे, जो वह सोचे वही होवै।

घाघ! कहते हैं, रात्रि मे जल्दी सोने से और प्रातःकाल जल्दी उठने से बुध्दि तीव्र होती है। यानि विचार शक्ति बढ़ जाती है।

4- प्रातःकाल खटिया से उठि के पिये तुरन्ते पानी। 
वाके घर मा वैद ना आवे बात घाघ के  जानी।। 

घाघ ! लिखते हैं, प्रातः काल उठते ही, जल पीकर शौच जाने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है, उसे डाक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। 

5-सावन हर्रे भादों चीता, क्वार मास गुड़ खाहू मीता। कातिक मूली अगहन तेल, पूस में करे दूध सो मेल माघ।
मास घी खिचरी खाय, फागुन उठि के प्रातः नहाय। 
चैत मास में नीम सेवती, बैसाखहि में खाय बासमती। 
जैठ मास जो दिन में सोवे, ताको जुर अषाढ़ में रोवे।।

घाघ ! लिखते हैं, सावन में हरड़ का सेवन, भाद्रपद में चिरायता का सेवन, क्वार में गुड़, कार्तिक मास में मूली, अगहन में तेल, पूष में दूध, माघ में खिचड़ी, फाल्गुन में प्रातःकाल स्नान, चैत में नीम, वैशाख में चावल खाने और जेठ के महीने में दोपहर में सोने से स्वास्थ्य उत्तम रहता है, उसे ज्वर नहीं आता।

6- कांटा बुरा करील का, औ बदरी का घाम। 
सौत बुरी है चून को, और साझे का काम।। 

घाघ! कहते हैं, करील का कांटा, बदली (जब आकाश में बादल छाया हो एवं धूप भी निकला हो) की धूप, सौत ( सौतेला )चून की  (अर्थात चूना से सौतेला व्यवहार नहीं करना चाहिए। भावार्थ यह है कि चूना का नित्य सेवन करना चाहिए) और साझे (सांझेदारी) का काम बुरा होता है। 

7-बिन बैलन खेती करै, बिन भैयन के रार। 
बिन महरारू घर करै, चैदह साख गवांर।। 

भड्डरी! लिखते हैं, जो मनुष्य बिना बैलों के खेती करता है, बिना भाइयों के झगड़ा या कोर्ट कचहरी करता है और बिना स्त्री के गृहस्थी का सुख पाना चाहता है, वह वज्र मूर्ख है। 

8-ताका भैंसा गादरबैल, नारि कुलच्छनि बालक छैल। 
इनसे बांचे चातुर लौग, राजहि त्याग करत हं जौग।। 

घाघ! लिखते हैं, तिरछी दृष्टि से देखने वाला भैंसा, बैठने वाला बैल, कुलक्षणी स्त्री और विलासी पुत्र दुखदाई हैं। चतुर मनुष्य राज्य त्याग कर सन्यास लेना पसन्द करते हैं, परन्तु इनके साथ रहना पसन्द नहीं करते। 

9-जाकी छाती न एकौ बार, उनसे सब रहियौ हुशियार।

घाघ! कहते हैं, जिस मनुष्य की छाती पर एक भी बाल नहीं हो, उससे सावधान रहना चाहिए। क्योंकि वह कठोर हृदय, क्रोधी व कपटी हो सकता है। 

10- खेती  पाती  बीनती, और घोड़े की तंग। 
अपने हाथ संभारिये, लाख लोग हो संग।।

घाघ! कहते हैं, खेती, प्रार्थना पत्र, तथा घोड़े के तंग को अपने हाथ से ठीक करना चाहिए किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करना चाहिए। 

11- जबहि तबहि डंडै करै, ताल नहाय, ओस में परै।
दैव न मारै आपै मरैं। 

भड्डरी! लिखते हैं, जो पुरूष कभी-कभी व्यायाम करता हैं, ताल में स्नान करता हैं और ओस में सोता है, उसे भगवान नहीं मारता, वह तो स्वयं मरने की तैयारी कर रहा है।

12- विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि। 
इतने से न धन घटे तो करैं बड़ेन सों रारि।।

घाघ! कहते हैं, ब्राह्मण को सेवक रखना, बकरियों का धन, अधिक कन्यायें उत्पन्न होने पर भी, यदि धन न घट सकें तो बड़े लोगों से झगड़ा मोल ले, धन अवश्य घट जायेगा।

13- औझा कमिया, वैद किसान। 
आडू बैल और खेत मसान। 

भड्डरी! लिखते हैं, नौकरी करने वाला औझा, खेती का काम करने वाला वैद्य, बिना बधिया किया हुआ बैल और मरघट के पास का खेत हानिकारक है।।"
 

Wednesday, 14 February 2024

वसन्तपंचमी 14 फरवरी 2024

 

14 फरवरी 2024 को माघ शुक्ल पंचमी  पूर्वाह्न व्यापिनी होने से पूरे भारत में वसंतपंचमी का पावन त्यौहार मनाया जायेगा। सिद्धपीठ दण्डी स्वामी मंदिर, लुधियाना से आचार्य सोहन वेदपाठी ने बताया कि वसन्त पञ्चमी का दिन माँ सरस्वती को समर्पित है और इस दिन माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। माता सरस्वती को ज्ञान, सँगीत, कला, विज्ञान और शिल्प-कला की देवी माना जाता है। इस दिन को श्री पञ्चमी और सरस्वती पूजा के नाम से भी जाना जाता है।

भक्त लोग, ज्ञान प्राप्ति और सुस्ती, आलस्य एवं अज्ञानता से छुटकारा पाने के लिये, आज के दिन देवी सरस्वती की उपासना करते हैं। कुछ प्रदेशों में आज के दिन शिशुओं को पहला अक्षर लिखना सिखाया जाता है। दूसरे शब्दों में वसन्त पञ्चमी का दिन विद्या आरम्भ या अक्षर अभ्यास के लिये काफी शुभ माना जाता है। इसीलिये माता-पिता आज के दिन शिशु को माता सरस्वती के आशीर्वाद के साथ विद्या आरम्भ कराते हैं। सभी विद्यालयों में आज के दिन सुबह के समय माता सरस्वती की पूजा की जाती है। वसन्त पञ्चमी वाले दिन सरस्वती पूजा विद्यार्थी अपने घर में ही अपने पुस्तकों को साफ-सफाई करके स्वच्छ वस्त्र पर रखकर माता सरस्वती का ध्यान करते हुये धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजन करें।

यह स्वयंसिद्ध मुहूर्तों में शामिल है। इस दिन कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। विवाहादि संस्कारों को छोड़कर।

आइये इसके बारे में कुछ खास जानकारी आपके साथ सांझा करता हूँ।

 वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदा की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

ऐतिहासिक महत्व - 

वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तानले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं।

इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।

ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। (1192 ई) यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?

बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।

कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है। हकीकत लाहौर का निवासी था। अत: पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

वसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया।

गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उध्दार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिश्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युध्द का पासा पलट गया।

इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटलामें तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

नक्षत्र ज्योतिष सीखने वाले व्हाट्सएप्प पर संपर्क करें wa.me/+919463405098


Tuesday, 6 February 2024

षट्तिला एकादशी व्रत कथा एवं स्नान विधि जानने के लिये लिंक पर क्लिक करें।

आज 6 फरवरी 2024 को षट्तिला एकादशी का व्रत है।

 आज के दिन 6 प्रकार से तिल का प्रयोग करना चाहिये।

पारण का समय - इस व्रत का पारण का समय कल 7 फरवरी को सूर्योदय से 8:41 AM तक के मध्य गाय के दूध से पारण करें।

हे अर्जुन! अब मैं माघ मास के कृष्ण पक्ष की षट्तिला एकादशी व्रत की कथा सुनाता हूँ-

एक बार दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा- 'हे ऋषि श्रेष्ठ! मनुष्य मृत्युलोक में ब्रह्महत्या आदि महापाप करते हैं और दूसरे के धन की चोरी तथा दूसरे की उन्तति देखकर ईर्ष्या आदि करते हैं, ऐसे महान पाप मनुष्य क्रोध, ईर्ष्या, आवेग और मूर्खतावश करते हैं और बाद में शोक करते हैं कि हाय! यह हमने क्या किया! हे महामुनि! ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाने का क्या उपाय है? कोई ऐसा उपाय बताने की कृपा करें, जिससे ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाया जा सके अर्थात उन्हें नरक की प्राप्ति न हो। ऐसा कौन-सा दान-पुण्य है, जिसके प्रभाव से नरक की यातना से बचा जा सकता है, इन सभी प्रश्नों का हल आप कृपापूर्वक बताइए?'

दालभ्य ऋषि की बात सुन पुलत्स्य ऋषि ने कहा- 'हे मुनि श्रेष्ठ! आपने मुझसे अत्यंत गूढ़ प्रश्न पूछा है। इससे संसार में मनुष्यों का बहुत लाभ होगा। जिस रहस्य को इंद्र आदि देवता भी नहीं जानते, वह रहस्य मैं आपको अवश्य ही बताऊंगा। माघ मास आने पर मनुष्य को स्नान आदि से शुद्ध रहना चाहिए और इंद्रियों को वश में करके तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या तथा अहंकार आदि से सर्वथा बचना चाहिए।

पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उपले बनाने चाहिए। इन उपलों से १०८ बार हवन करना चाहिए।

जिस दिन मूल नक्षत्र और एकादशी तिथि हो, तब अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करना चाहिए। स्नानादि नित्य कर्म से देवों के देव भगवान श्रीहरि का पूजन व कीर्तन करना चाहिए।

एकादशी के दिन उपवास करें तथा रात को जागरण और हवन करें। उसके दूसरे दिन धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान श्रीहरि की पूजा-अर्चना करें तथा खिचड़ी का भोग लगाएं। उस दिन श्रीविष्णु को पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी सहित अर्घ्य अवश्य देना चाहिए, तदुपरांत उनकी स्तुति करनी चाहिए- 'हे जगदीश्वर! आप निराश्रितों को शरण देने वाले हैं। आप संसार में डूबे हुए का उद्धार करने वाले हैं। हे कमलनयन! हे मधुसूदन! हे जगन्नाथ! हे पुण्डरीकाक्ष! आप लक्ष्मीजी सहित मेरे इस तुच्छ अर्घ्य को स्वीकार कीजिए।' इसके पश्चात ब्राह्मण को जल से भरा घड़ा और तिल दान करने चाहिए। यदि सम्भव हो तो ब्राह्मण को गऊ और तिल दान देना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य जितने तिलों का दान करता है। वह उतने ही सहस्र वर्ष स्वर्ग में वास करता है।

आचार्य सोहन वेदपाठी ने बताया है कि तिल का छह प्रकार से इस प्रकार प्रयोग करें।

1.तिल स्नान 

2. तिल की उबटन

3.तिलोदक

4.तिल का हवन

5.तिल का भोजन

6तिल का दान 

इस प्रकार छः रूपों में तिलों का प्रयोग षट्तिला कहलाती है। इससे अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि ने कहा- 'अब मैं एकादशी की कथा सुनाता हूँ-

एक बार नारद मुनि ने भगवान श्रीहरि से षटतिला एकादशी का माहात्म्य पूछा, वे बोले- 'हे प्रभु! आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। षटतिला एकादशी के उपवास का क्या पुण्य है? उसकी क्या कथा है, कृपा कर मुझसे कहिए।'

नारद की प्रार्थना सुन भगवान श्रीहरि ने कहा- 'हे नारद! मैं तुम्हें प्रत्यक्ष देखा सत्य वृत्तांत सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो-

बहुत पहले मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदा व्रत-उपवास किया करती थी। एक बार वह एक मास तक उपवास करती रही, इससे उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया। वह अत्यंत बुद्धिमान थी। फिर उसने कभी भी देवताओं तथा ब्राह्मणों के निमित्त अन्नादि का दान नहीं किया। मैंने चिंतन किया कि इस ब्राह्मणी ने उपवास आदि से अपना शरीर तो पवित्र कर लिया है तथा इसको वैकुंठ लोक भी प्राप्त हो जाएगा, किंतु इसने कभी अन्नदान नहीं किया है, अन्न के बिना जीव की तृप्ति होना कठिन है। ऐसा चिंतन कर मैं मृत्युलोक में गया और उस ब्राह्मणी से अन्न की भिक्षा मांगी। इस पर उस ब्राह्मणी ने कहा-हे योगीराज! आप यहां किसलिए पधारे हैं? मैंने कहा- मुझे भिक्षा चाहिए। इस पर उसने मुझे एक मिट्टी का पिंड दे दिया। मैं उस पिंड को लेकर स्वर्ग लौट आया। कुछ समय व्यतीत होने पर वह ब्राह्मणी शरीर त्यागकर स्वर्ग आई। मिट्टी के पिंड के प्रभाव से उसे उस जगह एक आम वृक्ष सहित घर मिला, किंतु उसने उस घर को अन्य वस्तुओं से खाली पाया। वह घबराई हुई मेरे पास आई और बोली- 'हे प्रभु! मैंने अनेक व्रत आदि से आपका पूजन किया है, किंतु फिर भी मेरा घर वस्तुओं से रिक्त है, इसका क्या कारण है?'

मैंने कहा- 'तुम अपने घर जाओ और जब देव-स्त्रियां तुम्हें देखने आएं, तब तुम उनसे षटतिला एकादशी व्रत का माहात्म्य और उसका विधान पूछना, जब तक वह न बताएं, तब तक द्वार नहीं खोलना।'

प्रभु के ऐसे वचन सुन वह अपने घर गई और जब देव-स्त्रियां आईं और द्वार खोलने के लिए कहने लगीं, तब उस ब्राह्मणी ने कहा- 'यदि आप मुझे देखने आई हैं तो पहले मुझे षटतिला एकादशी का माहात्म्य बताएं।'

तब उनमें से एक देव-स्त्री ने कहा- 'यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो ध्यानपूर्वक श्रवण करो- मैं तुमसे एकादशी व्रत और उसका माहात्म्य विधान सहित कहती हूं।'

जव उस देव-स्त्री ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना दिया, तब उस ब्राह्मणी ने द्वार खोल दिया। देव-स्त्रियों ने ब्राह्मणी को सब स्त्रियों से अलग पाया। उस ब्राह्मणी ने भी देव-स्त्रियों के कहे अनुसार षटतिला एकादशी का उपवास किया और उसके प्रभाव से उसका घर धन्य-धान्य से भर गया, अतः हे पार्थ! मनुष्यों को अज्ञान को त्यागकर षटतिला एकादशी का उपवास करना चाहिए। इस एकादशी व्रत के करने वाले को जन्म-जन्म की निरोगता प्राप्त हो जाती है। इस उपवास से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।"

कथा-सार

इस उपवास को करने से जहां हमें शारीरिक पवित्रता और निरोगता प्राप्त होती है, वहीं अन्न, तिल आदि दान करने से धन-धान्य में बढ़ोत्तरी होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनुष्य जो-जो और जैसा दान करता है, शरीर त्यागने के बाद उसे फल भी वैसा ही प्राप्त होता है, अतः धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ हमें दान आदि अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में वर्णित है कि बिना दान किए कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं होता।

आचार्य सोहन वेदपाठी, व्हाट्सएप्प नम्बर 9463405098