Monday, 29 August 2022

जीवित्पुत्रिका एवं महालक्ष्मी व्रत का निर्णय कैसे करें ?

इस वर्ष जीवित्पुत्रिका व्रत 25 सितंबर 2024 को है।

निर्णय - मिथिला क्षेत्रीय पञ्चाङ्ग में व्रतों का निर्णय अधिकतम वर्षकृत्य ग्रंथ के आधार पर किया जाता है। वर्षकृत्य के अनुसार जीवित्पुत्रिका प्रदोषव्यापिनी में ही स्वीकार करते हैं। जिसका पालन मिथिलांचल में लोग करते भी है। कथा में उपलब्ध वाक्य को प्रमाण मानते है। यथा - "प्रदोषसमये स्त्रीभिः पूज्यो जीमूतवाहनः" के अनुसार प्रदोषकाल में पूजन करना युक्तिसंगत है। लेकिन व्रत के लिये निर्णायक नहीं है। 

परञ्च 
इस व्रत के निर्णायक सिद्धांत में भ्रम होने का एकमात्र कारण यह है कि आश्विन कृष्ण अष्टमी को दो व्रत होता है। 
पहला - जीवित्पुत्रिका एवं 
दूसरा - महालक्ष्मी व्रत (सोलह दिनों का व्रत होता है। जो भाद्र शुक्ल अष्टमी से प्रारंभ होकर आश्विन कृष्ण अष्टमी को पूर्ण होता है।)
दोनों का निर्णायक सिद्धांत अलग-अलग है।
देखिये ब्रह्मवैवर्त पुराण के इस श्लोक को -

लक्ष्मीव्रतं चभ्युदिते शशांके 
यत्राष्टमी चाश्विनकृष्णपक्षे।
यत्रोदयं वै लभते दिनेशो 
सुताख्या व्रतमस्तु तत्र।।

स्पष्ट है कि चंद्रोदय में उपलब्ध अष्टमी में लक्ष्मी व्रत एवं सूर्योदय में उपलब्ध अष्टमी में जीवित्पुत्रिका व्रत करना चाहिये।। काशीय एवं अन्य प्रान्तीय पञ्चाङ्गकारों के द्वारा यही स्वीकृत एवं ग्राह्य है।

Saturday, 6 August 2022

ऋषिपंचमी व्रत की विशेषता, कथा एवं उद्यापन विधि , ऋषिपंचमी व्रत 8 सितम्बर 2024 को है।

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ऋषिपंचमी व्रत का उद्देश्य - 

महिलाये जब माहवारी (mc) से होती हैं तब गलती से कभी मंदिर में चली जाती हैं या कभी पूजा हो वहाँ चली जाती हैं , परपुरुषगमन, व्यभिचार, विवाहपूर्व संबंध हो तो उसका दोष लगता हैं ।उन सभी पापों से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिये। आजकल जब पुरुष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है। जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य , पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है।

विशेष - 

वैसे तो यह व्रत स्त्रियों को आजीवन निर्बाधरूप से करना चाहिये। लेकिन कई वर्ष व्रत के दिन माहवारी आ जाने के कारण व्रत नही कर सकते है। इस अवस्था में व्रत छोड़ना पड़ता है। अतः लगभग 45 से 50 वर्ष की अवस्था के बाद जब माहवारी से निवृति ( Menopause ) हो जाये तब पति-पत्नी दोनों ही इस व्रत को लगातार सात वर्षों तक करें एवं आठवें वर्ष इसका उद्यापन करें।

पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज आदि ने भविष्योत्तर से उद्धृत कर बहुत-सी बातें लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है। जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा। उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल (कीचड़ युक्त ) जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में। अत: मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिये।

निषेध- 

इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है । व्रतराज के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिये ।

कब करें - 

ऋषि पञ्चमी का व्रत भाद्रपद के  शुक्ल पक्षकी पंचमी को किया जाता है। ऋषिपंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को।

व्रत एवं पूजन की विधि -

व्रती को नदी आदि में स्नान करते समय अपामार्ग (पंजाब में इसे पुठकण्डा के नाम से जाना जाता है। जबकि हिंदी भाषी क्षेत्रों में इसे चिड़चिड़ी कहा जाता है। ) के आठ पत्ते लेकर एक - एक करके हथेली पर रगड़ें एवं अपने बालों पर लगाकर स्नान करना चाहिये । इसी प्रकार अरुंधति सहित सातों ऋषियों का ध्यान करते हुये आठ बार स्नान करने चाहिये। तथा दैनिक कृत्य करने के उपरान्त व्रत का संकल्प करें । 

जो इस प्रकार है - तिथ्यादि - नाम - गोत्र आदि का उच्चारण करने के बाद इस प्रकार से बोलें - 

अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्थायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये।

ऐसा संकल्प करके अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिये ।

सातों ऋषियों (कश्यप, अत्रि भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वसिष्ठ-इन सात ऋषियों एवं वसिष्ठ पत्नी अरुंधति) की प्रतिमाओं (यह कुशा को लपेटकर बना लेना चाहिये।) को पंचामृत से स्नान कराकर उन पर चन्दन , पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्ध्य चढ़ाना चाहिये।

अर्ध्यमन्त्र - 

सप्त ऋषि के लिये -

कश्यपोSत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:। 

जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:॥

गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा॥


अरून्धती के लिए भी अर्घ्यमन्त्र है—

अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती। 

कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि॥ 


सौजन्य - आचार्य सोहन वेदपाठी

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व्रत की कथा -

इसकी दो कथा प्रसिद्ध है - 

पहली कथा - 

सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत  पतिव्रता थी। एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुटिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था। इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए। जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया । कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्महत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी। बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया। रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया। तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया। अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो। भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है।

दूसरी कथा -

एक समय  विदर्भ  देश में उत्तक नाम का ब्राह्मण  अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास करता था। उसके परिवार में एक पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्र का नाम 'सुविभूषण' था जो बहुत बुद्धि वाला था। राजा ने अपनी पुत्री का विवाहअच्छे ब्राह्मण के साथ कर दिया था। भगवान की कृपा से ऐसा विधान बना कि पुत्री विधवा हो गयी। अपने धर्म के साथ वह अपने पिता के घर ही रहने लगी। अपनी कन्या को दु:खी देखकर उत्तक अपने पुत्र को घर पर छोड़कर अपनी स्त्री व पुत्री को लेकर गंगा किनारे आश्रम बनाकर रहने लगे। कन्या अपने माता-पिता की सेवा करने लगी। एक दिन काम करके थक कर कन्या एक पत्थर की शिला पर आराम करने लेट गई। आधी रात में उसके शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये। अपनी कन्या के शरीर पर कीड़े देखकर ब्राह्मणी बहुत विलाप करके रोती रही और बेहोश हो गयी। होश आने पर कन्या को उठाकर उत्तक ऋषि के पास ले गई और कहने लगी कि इसकी हालत ऐसी क्यों हो गई? ब्राह्मणी की बात सुनकर उत्तक अपने नेत्रों को बन्द करके ध्यान लगाकर कहने लगे कि हमारी कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी। इसने एक बार रजस्वला होने पर घर के सब बर्तन आदि छू लिये थे। बस इसी पाप के कारण इसके शरीर पर कीड़े पड़ गये हैं। शास्त्रों के अनुसार रजस्वला स्त्री पहले दिन चान्डालनी दूसरे दिन ब्रह्म हत्यारनी तीसरे दिन पवित्र धोबिन के समान होती है और चौथे दिन वह स्नान करने के पश्चात् शुद्ध हो जाती है। शुद्ध होने के बाद भी इसने अपनी सखियों के साथ ऋषि पंचमी का व्रत देखकर रुचि नहीं ली। व्रत के दर्शन मात्र से ही इसे ब्राह्मण कुल प्राप्त हुआ। लेकिन इसके तिरस्कार करने से इसके शरीर में कीड़े पड़ गये। ब्राह्मणी ने कहा ऐसे आश्चर्य व्रत को आप कृपा करके मुझे अवश्य बतायें। यह कथा श्री कृष्ण ने युधिष्ठरको सुनाई थी। जो स्त्री रजस्वला होकर भी घर के कामों को करती है वह अवश्य ही नरक में जाती है।

उद्यापन की विधि--

यह व्रत सात वर्षों का होता है।सप्तर्षि सहित नवग्रहादि पूजन किया जाता है। सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं। यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है।