क्या आप शाम्भवी मुद्रा और खेचरी मुद्रा के बारे जानना चाहेंगे? तो मैं बताना चाहूंगा कि शाम्भवी मुद्रा में होंठ तो बन्द रहते हैं, परन्तु जिह्वा आपके मुंह का अन्दरूनी अंग होकर भी दांतों और अन्दर के अन्य हिस्से से अलग स्थिर रहती है। इस मुद्रा में जिह्वा को पिछे की तरफ खींचकर उसे अडिग रखा जाता है और आज्ञाचक्र पर मन्त्र का ध्यान किया जाता है तथा अंगुलियां जपमाला पर फिसलती रहती है। जिह्वा पर बाल बराबर भी कंपन नहीं होना चाहिये।
खेचर का मतलब आकाश होता है। हम भगवान् सूर्य को "ऊँ खेचराय नम:" कहके प्रणाम भी करते हैं। खेचरी का अर्थ आकाश में गमन करना होता है और यही कारण है कि पक्षियों को "खग" भी कहा जाता है।
खेचरी मुद्रा में जिह्वा को मुंह के अन्दर पीछे की तरफ करके तालु से चिपका लिया जाता है। बहुत ही जटिल मुद्रा है। लेकर असम्भव नहीं है। कई दिनों तक अंगुलियों से जिह्वा को बाहर की तरफ खींच-खींचकर उसपर गोघृत की मालिश की जाती है। फिर उसे पीछे की तरफ करके तालु के गह्वर में घुसाकर स्थिर रखा जाता है। पैंतीस से चालीस दिनों के कठिन व नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा का कामचलाऊ अभ्यास हो जाता है और फिर उस मुद्रा में जपसाधना करते-करते एकदिन खेचरी मुद्रा भी सिद्ध हो जाती है. लेकिन उक्त दोनों मुद्राएँ शैव और शाक्त मन्त्रों की जपसाधना के लिये है।
सूचना - सौर्य, वैष्णव, और गाणपत्य मन्त्रों की जपसाधना हेतु उक्त मुद्राएँ निषिद्ध मानी जाती है।
साभार - एक साधक प्रवीण कुमार