Saturday 12 October 2024

दशहरा का संबंध न राम से है, न ही रावण से। यह विजयादशमी है। आइये आचार्य सोहन वेदपाठी से जानते हैं।

दशहरे का सम्बन्ध न राम से है न रावण से
दशहरा शक्ति पूजा का पर्व है बस
नव दिन की शक्ति आराधना के बाद दशवें दिन शस्त्र पूजा करके विजय की कामना हेतु देवी के रूप विजया का पूजन किया जाता है और यह दशमी के दिन होता है इसीलिये इसे विजयादशमी कहते है
दशों दिशाओं से शक्ति का पूजन करने के कारण विजयादशमी कहते है। दशहरा शब्द आधुनिक पत्रकारों एवं लेखकों ने जोड़ दिया। शेष राम रावण युद्ध का पूरा विवरण सन्दर्भ सहित नीचे लिखा है - 

पद्म पुराण के पातालखंड   इसका विवरण है ‘‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिन)’’ 15 दिन अलग अलग युद्धबंदी 72 दिन चले महासंग्राम में लंकाधिराज रावण का संहार आश्विन शुक्ल दशमी को नहीं चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को हुआ।

घन घमंड गरजत चहु ओरा।
प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।

रामचरित मानस हो, बाल्मीकि रामायण अथवा ‘रामायण शत कोटि अपारा’ हर जगह ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास के प्रमाण मिलते हैं। पद्मपुराण के पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में पहुंचते हैं। परिचय देकर प्रणाम करतेे है।
शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया। उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य का उपदेश देते हुए कहा था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास पहुंचा देंगे।
इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते है- जनक पुरी में धनुषयज्ञ में राम लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र द्वारा पहुंचना और राम द्वारा धनुषभंग कर राम- सीता विवाह का प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया तब विवाह राम 15 वर्ष के और सीता 06 वर्ष की थी विवाहोपरांत वें 12 वर्ष अयोध्या में रहे, 27 वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई के वर मांगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक 3 दिन जल पीकर रहे चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। पांचवें दिन वे चित्रकूट पहुंचे, वहां पूरे 12 वर्ष रहे। 13वें वर्ष के प्रारंभ में राम लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुंचे। जहां शूर्पनखा को कुरूप किया।
माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता का हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया। आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को सम्पाति नामक गिद्ध ने बताया सीता लंका की अशोक - वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने छलांग लगाई , रात में लंका प्रवेश कर खोजबीन करने लगे। कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को वाटिका विध्वंश किया, उसी दिन अक्षय कुमार का वध किया। कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को मेघनाद ने ब्रह्मपाश में बांधकर दरबार में ले गये और लंकादहन किया। हनुमानजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित सभी वानरों ने नाचते गाते 5 दिन मार्ग में लगाये और मार्गशीर्ष (अगहन) कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया।
हनुमान की अगुवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे। 
अगहन कृष्ण अष्टमी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और 7 दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुँचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया।
अगहन शुक्ल चतुर्थी को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर परिचर्चा हुई। सागर से मार्ग याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक 4 दिन अनशन किया। दशमी को अग्निबाण का संधान हुआ तो रत्नाकर (समुद्रदेव) प्रकट हुये और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से त्रयोदशी तक 4 दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चतुर्दशी को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक 3 दिन में वानर सेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को सुक - सारन वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और पहचान करके उन्हें अभयदान दिया।
पौष कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्य अभ्यास किया। पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया। इसके बाद पौष शुक्ल द्वितीया से अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। आचार्य सोहन वेदपाठी मोबाइल - 9463405098
पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश (हनुमान जी) द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटा और राम लक्ष्मण को मुक्त किया।
पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल त्रयोदशी को कंपन बध, पौष शुक्ल चतुर्दशी से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का बध, माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तक राम रावण में तुमुल युद्ध हुआ और रावण को भागना पड़ा।
रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक 4 दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया।
कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विषतंतु आदि 5 राक्षसीे का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया।
माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ बध, माघ शुक्ल त्रयोदशी से फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष बध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण और  मेघनाद का युद्ध प्रारंभ हुआ । सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुये एवं उपचार हुआ। इस घटना के कारण फाल्गुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक 5 दिन युद्ध विराम रहा।
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फाल्गुन कृष्ण नवमी से त्रयोदशी तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया।
इसके बाद फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को रावण ने यज्ञ दीक्षा ली और फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया। फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ।
फाल्गुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि राक्षसों का वध हुआ। फाल्गुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुये, सुषेण वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि पर्वत लाये और संजीवनी बूटी के प्रभाव से लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुये।
राम-रावण युद्ध फाल्गुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ प्राप्त हुआ।
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से 18 दिनों तक युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को श्रीराम ने दशानन रावण का संहार करके सायुज्य मुक्ति प्रदान किया। 
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक (87 दिनों) 15 दिनों का अलग अलग युद्धबंदी रही। 72 दिन चला महासंग्राम और श्रीराम विजयी हुये , चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया।
अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण एवं सीता उत्तर दिशा में उड़े। चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज के आश्रम में पहुंचें। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ।
चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुंचाया जहां अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।

Monday 16 September 2024

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

एक बार नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने संसार के कल्याणार्थ सूतजी से पूछा-। हे सूत! कराल कलिकाल में लोगों के बालक किस तरह दीर्घायु होंगे सो कहिये? सूतजी बोले-जब द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ था, उसी समय बहुत-सी शोकाकुल स्त्रियों ने आपस मे सलाह की। कि क्या इस कलि में माता के जीवित रहते पुत्र मर जायेंगे? जब वे आपस मे कुछ निर्णय नहीं कर सकीं तब गौतमजी के पास पूछने के लिये गयीं। जब उनके पास पँहुचीं, तो उस समय गौतमजी आनन्द के साथ बैठे थे। उनके सामने जाकर उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तदनन्तर स्त्रियों ने पूछा- 'हे प्रभो! इस कलियुग में लोगों के पुत्र किस तरह जीवित रहेंगे? इसके लिये कोई व्रत या तप हो तो कृपा करके बताइये'। इस तरह उनकी बात सुनकर गौतमजी बोले-'आपसे मैं वही बात कहूँगा, जो मैंने पहले से सुन रखा है'। गौतमजी ने कहा- जब महाभारत युग का अन्त हो गया और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अपने बेटों को मरा देखकर सब पाण्डव बड़े दुःखी हुए तो पुत्र के शोक से व्याकुल होकर द्रौपदी अपनी सखियों के साथ ब्राह्मण-श्रेष्ठ धौम्य के पास गयीं। और उसने धौम्य से कहा-'हे विपेंद्र! कौन -सा उपाय करने से बच्चे दीर्घायु हो सकते हैं, कृपा करके ठीक-ठीक कहिये। धौम्य बोले-सत्ययुग में सत्यवचन बोलनेवाला, सत्याचरण करनेवाला, समदर्शी जीमूतवाहन नामक एक राजा था। एक बार वह अपनी स्त्री के साथ अपनी ससुराल गया और वहीं रहने लगा। एक दिन आधी रात के समय पुत्र के शोक से व्याकुल कोई स्त्री रोने लगी। क्योकिं वह अपने बेटे के दर्शन से निराश हो चुकी थी- उसका पुत्र मर चुका था। वह रोती हुई कहती थी- 'हाय, मुझ बूढ़ी माता के सामने मेरा बेटा मरा जा रहा है।' उसका रुदन सुनकर राजा जीमूतवाहन का तो मानों हृदय विदीर्ण हो गया।
    वह तत्काल उस स्त्री के पास गया और उससे पूछा-'तुम्हारा बेटा कैसे मरा है?' बूढ़ी ने कहा-'गरूड़ प्रतिदिन आकर गाँव के लड़कों को खा जाता है'। इस पर दयालु राजा ने कहा-"माता! अब तुम रोओ मत। आनन्द से बैठो-मैं तुम्हारे बच्चे को बचाने का यत्न करता हूँ'। ऐसा कहकर राजा उस स्थान पर गया, जहाँ गरुड़ आकर प्रतिदिन मांस खाया करता था। उसी समय गरुड़ भी उस पर टूट पड़ा और मांस खाने लगा। जब अतिशय तेजस्वी गरुड़ ने राजा का बायाँ अङ्ग खा लिया तो झटपट राजा ने अपना दाहिना अङ्ग फेर कर गरुड़ के सामने कर दिया। यह देखकर गरुड़जी ने कहा-'तुम कोई देवता हो? कौन हो? तुम मनुष्य तो नही जान पड़ते। अच्छा, अपना जन्म और कुल बताओ'। पीड़ा से व्याकुल मनवाले राजा ने कहा-'हे पक्षिराज! इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है, तुम अपनी इच्छा भर मेरा मांस खाओ'। यह सुनकर गरुड़ रुक गये और बड़े आदर से राजा के जन्म और कुल की बात पूछने लगे। राजा ने कहा-'मेरी माता का नाम है, शैव्या और मेरे पिता का नाम शालिवाहन है। सूर्यवंश में मेरा जन्म हुआ है और जीमूतवाहन मेरा नाम है'। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने कहा-  हे महाभाग! तुम्हारे मन मे जो अभिलाषा हो वह वर माँगों'। राजा ने कहा-'हे पक्षीराज! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो वर दीजिये कि, आपने अब तक जिन प्राणियों को खाया है, वे सब जीवित हो जायें। हे स्वामिन! अबसे आप यहाँ बालकों को न खायें और कोई ऐसा उपाय करें कि जहाँ जो उत्पन्न हों वे लोग बहुत दिनों तक जीवित रहें। धौम्य ने कहा कि, पक्षिराज गरुड़ राजा को वरदान देकर स्वयं अमृत के लिये नागलोक चले। वहाँ से अमृत लाकर उन्होंने उन मरे मनुष्यों की हड्डियों पर बरसाया। ऐसा करने से सबलोग जीवित हो गये, जिनको कि पहले गरुड़ ने खाया था। राजा के त्याग और गरुड़ की कृपा से वहाँवालों का बहुत कष्ट दूर हो गया। उस समय राजा के शरीर की शोभा दूनी हो गयी थी। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने फिर कहा- 'मैं संसार के कल्याणार्थ एक और वरदान दूँगा। आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है। आज ही तुमने यहाँ की प्रजा को जीवन दान दिया है। हे वत्स! अब से यह दिन ब्रह्मभाव हो गया है। जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है वही त्रैलोक्य से पूजित दुर्गा अमृत प्राप्त करने के अर्थ में जीवत्पुत्रिका कहलायी हैं। सो इस तिथि को जो स्त्रियाँ उस जीवत्पुत्रिका की और कुश की आकृति बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और वंश की भी बढ़ती होती रहेगी। हे महाभाग! इस विषय में विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है। 

हे राजन! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करे, यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत न कर शुद्ध अष्टमी को व्रत करे और नवमी में पारण करे। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो फल नष्ट हो ही जायेगा और सौभाग्य तो अवश्य नष्ट हो जायेगा। 

जीमूतवाहन को इस तरह का वरदान देकर गरुड़ वैकुण्ठ धाम को चले गये। और राजा भी अपनी पत्नी के साथ अपने नगर को वापस चले आये। धौम्य द्रौपदी से कहते हैं- 'हे देवी! मैंने यह अतिशय दुर्लभ व्रत तुमको बताया है। इस व्रत को करने से बच्चे दीर्घायु होते हैं। हे देवि! तुम भी पूर्वोक्त विधि से यह व्रत और दुर्गाजी का पूजन करो तो तुम्हें अभिलषित फल प्राप्त होगा।' मुनिराज धौम्य की बात सुनकर द्रौपदी के हृदय में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न हुआ। और पुरवासिनी स्त्रियों को बुलाकर उनके साथ यह उत्तम व्रत किया। गौतम ने कहा- यह व्रत और इसके प्रभाव को किसी एक चील ने सुन लिया और अपनी सखी सियारिन को बतलाया। इसके बाद पीपल वृक्ष की शाखा पर बैठकर उस चील ने और उस वृक्ष  के खोंते में बैठकर सियारिन ने भी व्रत किया। फिर वही मादा चील किसी उत्तम ब्राह्मण के मुँह से यह कथा सुन आयी और पीपल के खोंते में बैठी हुई अपनी सखी को सुनाया। सियारिन ने आधी कथा सुनी थी कि उसे भूख लग गयी और वह उसी समय शव से भरे हुये श्मशान पहुँची। वहाँ उसने इच्छा भर मांस का भोजन किया और चील बिना कुछ खाये-पिये रह गयी और सवेरा हो गया। सवेरे वह गौशाले में गयी और वहाँ गौ का दूध पिया। इस तरह नवमी को उसने पारण किया। कुछ दिनों बाद वे दोनों मर गयीं और अयोध्या में किसी धनी व्यापारी के घर जन्मीं। संयोग से उन दोनों का जन्म एक ही घर मे हुआ, जिसमे सियारिन ज्येष्ठ हुई और चील छोटी। वे दोनों सभी शुभ लक्षणों से युक्त थीं। इसलिये बड़ी लड़की काशीराज के और छोटी उसके मन्त्री के साथ गार्हपत्य अग्नि के सामने विधिपूर्वक ब्याही गयी। पूर्वजन्म के कर्मफल से वह मृगनयनी रानी हुई। जिस किसी भी सन्तान को उत्पन्न करती, वह मर जाती थी और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करनेवाली मन्त्री की पत्नी ने अष्ट वसुओं के सदृश तेजस्वी आठ बेटे उत्पन्न किये और सभी जीवित रह गये। अपनी बहिन के पुत्रों को जीवित देखकर ईर्ष्यावश राजपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि, यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहते हो तो इस मन्त्री के भी पुत्रों को उसी जगह भेज दो जहाँ मेरे बेटे गये हैं अर्थात इन्हें मार डालो। यह सुनकर राजा ने उस मन्त्री के पुत्रों को मारने के लिए कई प्रकार के उद्योग किये। पर मन्त्री- पत्नी ने जीवित्पुत्रिका के पुण्य-बल से बचा लिया। एक दिन राजा ने अपने आदमियों से उन पुत्रों का सिर कटवाकर पिटारी में रखवाया और वह पिटारी उनकी माता(मन्त्री-पत्नी) के पास भेज दिया। किन्तु वे आठों शिर बेशकीमती जवाहरात हो गये। और भले-चंगे वे आठों लड़के अपनी माता के पास वापस चले गये। उनको जीवित देखकर राजपत्नी को बड़ा विस्मय हुआ। अन्त में, वह मन्त्री के पत्नी के पास आयी और उसने पूछा- बहन! तुमने कौन- सा ऐसा पुण्य किया है जिससे बार-बार मारे जाने पर भी तुम्हारे बेटे नहीं मरते। इस पर मन्त्री की पत्नी ने कहा- पूर्वजन्म में मैं चील थी और तुम सियारिन। हमने और तुमने साथ-साथ  जीवित्पुत्रिका का व्रत किया था। तुमने व्रत के नियमों का भली-भाँति पालन नहीं किया था और मैंने किया था, इसी दोष से हे बहिन! तुम्हारे बेटे नहीं जीते हैं। ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवत्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े- बड़े राजा हुए। सूतजी कहते हैं कि सब प्रकार का आनन्द देनेवाला मैंने यह दिव्य व्रत बतलाया। स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हों तो विधिपूर्वक यह व्रत करें।
।।प्रेम से बोलिये जीमूतवाहन की जय।

साभार - पं० जीतेन्द्र तिवारी (मुन्ना बाबा)
प्रतापटांड, वैशाली, बिहार।
सम्पर्क सूत्र- 9771581100

Friday 13 September 2024

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ? (कोई विद्वान लगता है? )

अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः? (कोई विद्वान लगता है?) 
आचार्य सोहन वेदपाठी M - 9463405098
आज आषाढ़ मास के प्रथम दिन ('आषाढस्य प्रथम दिवसे') पर कालिदास से विदुषि पत्नी विद्योत्तमा द्वारा (कालीदास द्वारा काशी से ज्ञान प्राप्ति उपरांत वापसी पर) उच्चारित प्रथम वाक्य के तीन शब्द ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ?' अर्थात - कोई विद्वान लगता है? 

विद्योत्तमा के इस आश्चर्यमिश्रित विस्मयकारी प्रश्न का आशय यह है कि, – “आपने क्या कोई विशेष उल्लेखनीय योग्यता प्राप्त कर ली है! जिससे कि मैं आपका स्वागत, अभिनन्दन और अभिवादन करूँ?"

कालीदास द्वारा ऊँट की चिल्लाहट पर 'ऊष्ट्र:' के स्थान पर ‘ऊट्र:' के गलत उच्चारण करने पर विद्योत्तमा ने कालीदास को पत्नी के लिए सही अर्थों में योग्य पति बनने हेतु, योग्यता प्राप्ति के उपरांत ही, सम्बन्ध की बात रखी, जिससे कि ऐसे योग्य पति से सम्बन्ध बनाने में पत्नी को भी गर्व और गौरव का अनुभव हो। 
जब काशी से विद्वान बन काली दास लौटे, तब उक्त प्रश्न किया गया, जिसका उचित समाधान कारक उत्तर देकर कालीदास ने विद्योत्तमा को संतुष्ट कर उसका सम्मान प्राप्त किया और आगे चल कर उक्त प्रश्न में प्रयुक्त हुए तीनों शब्दों से ही प्रारम्भ कर तीन पृथक्-पृथक् काव्य ग्रंथों की रचना की। 

'अस्ति' शब्द से 'कुमार सम्भव' का पहला श्लोक -

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वागह्यौ
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

'कश्चित्' शब्द से 'मेघदूत' का पहला श्लोक -

कश्चित् कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

अर्थ - कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे। 

'वाग्विशेषः' शब्द से 'रघुवंश' का पहला श्लोक -

'वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ। 
अर्थ - शब्द और अर्थ के समान सर्वदा मिले हुए जगत के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ।

कालीदास ने उक्त के अतिरिक्त अन्य कई काव्य और नाट्य ग्रंथ भी लिखे ।

Saturday 7 September 2024

कलंक चतुर्थी के चंद्र दर्शन दोष से मुक्ति के उपाय

  विष्णु पुराण के निम्नलिखित मन्त्र का पाठ करने से भी चन्द्र दर्शन दोष का निवारण हो जाता है-
 श्रीकृष्ण एवं स्यमंतक मणि के प्रसंग को सुनने-सुनाने से दोष नहीं लगता ।

चंद्र दर्शन होने पर इस श्लोक का जाप करना चाहिए -

सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हत:।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तक:।।

मंत्रार्थ- सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंह को जाम्बवान ने मारा। हे सुकुमार बालक तू मत रोवे, तेरी ही यह स्यमन्तक मणि है।

जो मनुष्य झूठे आरोप-प्रत्यारोप में फंस जाए, वह इस श्लोक को जपकर आरोप मुक्त हो सकता है।

इस कथा को पढ़ने से भी चन्द्रदर्शन के दोष से मुक्ति होती है।
 
छप्पनवां अध्याय - 
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्याभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी।

राजा परीक्षित ने पूछाः भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ?

श्रीशुकदेव जी ने कहाः परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ती से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहाः 'शंख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- 'अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा- 'सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।' परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।

एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, 'बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।' सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। परीक्षित ! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- 'प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरूष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अंदर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं।) परीक्षित !जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा- ऋक्षराज ! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।

तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा- 'हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।

सत्तावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका न हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- 'हाय-हाय ! यह तो बड़े दुःख की बात हुई।'

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा – ‘तुम सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?' शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्लाने लगीं, परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया, जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।

सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिता जी ! हाय पिता जी ! मैं मारी गयी – इस प्रकार पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं। बीच बीच में बेहोश हो जातीं और होश  में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया – यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे। परीक्षित ! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि 'अहो ! हम लोगों पर तो बहुत बड़ी विपत्ती आ पड़ी !'इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे।

जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिए उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा - 'भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ?तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौट जाना पड़ा था।' जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा - 'भाई !ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल पौरूष जानकर भी उनसे वैर विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते है – इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व विधाता भी नहीं समझ पाते, जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में – जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हें-नन्हें बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़ हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाय रखा, मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अदभुत हैं। वे अनन्त अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरूड़चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिए भगवान ने पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमंतक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा - 'हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमंतक मणि तो है ही नहीं। बलराम जी ने कहा - 'इसमे सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमंतक मणि को किसी न किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।' परीक्षित ! यह कहकर यदुवंश शिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिला पुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिय सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवानश्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमंतकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई बन्धुओं के साथ अपने श्वसुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदेहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिए उत्तेजित किया था। इसलिए जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यंत भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परिक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते है कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय। उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा - 'एक बार काशी नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिए जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।' परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि 'इस उपद्रव का यही कारण नहीं है' यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिए उन्होंने मुस्कराते हुए अक्रूर से कहा - 'चाचा जी ! आप दान धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के – उनके नाती ही उन्हें तिलाँजली और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान अक्रूर जी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र – बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बती का सन्देह दूर कर दीजिए और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिए। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिसमें सोने की वेदियाँ बनती हैं। परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्तवना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमंतक मणि अपने जाति-भाईयों को दिखाकर अपना कलंक दूर कर दिया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रम से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह हर प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।

Thursday 5 September 2024

हरितालिका तीज व्रत की विधि 6 सितम्बर 2024


6 सितम्बर 2024, दिन - शुक्रवार को हरितालिका तीज का व्रत है। हरितालिका तीज का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि (चतुर्थी युक्त तृतीया) को मनाया जाता है।
हरितालिक शब्द का अर्थ - हरित (हरण करना) आलिका (सखी, सहेली) अर्थात् सखी के द्वारा का हरण।

 इस व्रत का पूजन प्रातःकाल (सूर्योदय के बाद लगभग ढाई घंटे का समय) या प्रदोषकाल (सूर्यास्त के बाद लगभग दो घंटे का समय) में करने का विशेष महत्व है। 

भारतीय संस्कारों को आत्मसात किये सौभाग्यवती पत्नी अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा हेतु शिवपार्वती की पूजा कर व्रत रखतीं है । कुंवारी कन्यायें यह व्रत अच्छा घर वर प्राप्त करने हेतु रखती हैं ।
 
 इस दिन भगवान शंकर की पार्थिवलिंग बनाकर पूजन किया जाता है और नाना प्रकार के मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है।
इस निर्जला कठिन व्रतानुष्ठान को हरितालिका इसलिये कहते हैं कि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हरण कर घनघोर जंगल में ले गईं थीं। वहां पार्वती जी ने मिट्टी से पार्थिवलिंग बनाकर पूजन एवं घोर तप किया। जिससे प्रसन्न होकर शंकरजी ने पार्वती को वरदान देने के पश्चात् यह भी कहा था कि - जो स्त्री या कुवांरी इस व्रत को श्रद्धा से करेगी, उसे तुम्हारे समान अचल सुहाग प्राप्त होगा।
   यदि इस दिन कुवांरी कन्या रात्रि जागरण में शिव- पार्वती विवाह का पाठ-परायण करे अथवा पार्वती मंगल स्तोत्र का पाठ करे तो श्रेष्ठ घर वर की प्राप्ति होती है।

                      व्रतकथा
 श्री परम पावन भूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव-पार्वती सभी गणों सहित बाघम्बर पर विराजमान थे। बलभद्र, वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नन्दी, अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढा रहे थे। गन्धर्वगण, किन्नर एवं ऋषिगण भगवान शिव की अनुष्टुपछन्दों से स्तुति गान में संलग्न थे, उसी सुअवसर पर देवी पार्वतीजी ने भगवान शंकर से दोंनो हाथ जोड प्रश्न किया , हे! महेश्वर मेरे बडे सौभाग्य हैं जो मैने आप सरीखे पति का वरण किया , क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने कौन सा ऐसा पुण्य अर्जन किया है ? आप अन्तर्यामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें ।

पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले हे वरानने! तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे मुझे प्राप्त किया है वह अति गुप्त है किन्तु तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूँ। इसकी कथा है जो उस रात्रि कही जाती है। जैसे तारागणों में चन्द्रमा, नवग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में यह हरितालीका व्रत श्रेष्ठ है। 

एक दिन पहले (व्रत वाले दिन से पहले) व्रती स्नान करके व्रत का संकल्प एवं सात्विक भोजन करेंगी। फिर दूसरे दिन (व्रत वाले दिन) के चारों प्रहर व रात्रि के चारों प्रहर शिवपूजन कर होम करतीं है, रात्रि जागरण कर शिव जप , भजन आदि करती हैं फिर तीसरे दिन प्रातः फूलहरा ( सजाया गया मंडप) व पार्थिव या रेणुका के शिव लिंग का विसर्जन कर व्रत खोलती (पारण करती) हैं।