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अशौच (सूतक - पातक) विचार -
अशौच दो प्रकार का होता है-1.जननाशौच तथा 2. मरणाशौच। यहाँ मरणाशौच के संदर्भ में कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं -
(1) मरणाशौच के सम्बन्ध में शास्त्र के वचन अनुसार ब्राह्मण को दस दिन का, क्षत्रिय को बारह दिन का, वैश्य को पंद्रह दिन का और शूद्र को एक महीने का अशौच लगता है। परन्तु शास्त्र में निर्णयात्मक यह व्यवस्था है कि चारों वर्णों की स्पर्शास्पर्शजन्य शुद्धि दस दिन में हो जाती है। यह कायशुद्धि (स्पर्शास्पर्श जन्य) अर्थात् सामान्य शुद्धि है। इसके अनन्तर अस्पृश्यता का दोष नहीं रहता। अन्नादिप्रयुक्त पूर्ण शुद्धि बारहवें दिन सपिण्डीकरण के बाद ही होती है। इसीलिये देवार्चन आदि इसके अनन्तर ही किये जा सकते हैं।
शुद्धयेद् विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति ।।
(कूर्मपुराण उपरिविभाग)
सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतके तथा। दशाहाच्छुद्धिरेतेषामिति शातातपोऽब्रवीत्।।
(निर्णयसिन्धु तृतीयपरि० उत्त०)
दशाहे कायशुद्धिः स्यात् अन्नशुद्धिः सपिण्डने।
(2) दस दिन के लिये प्रवृत्त अशौच के अन्तर्गत यदि दूसरा दस दिन तक के लिये प्रवृत्त अशौच हो जाए (किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये) तो पूर्वप्रवृत्त दशाहाशौच की शुद्धि के साथ उत्तरप्रवृत्त दशाहाशौच की भी निवृत्ति हो जायेगी अर्थात् पहले व्यक्ति की मृत्यु तिथि के अनुसार दूसरे के अशौच की भी निवृत्ति हो जायेगी, किन्तु प्रथम मरणाशौच के दसवें दिन की रात के तीन प्रहर तक दस दिन तक रहने वाला यदि दूसरा मरणाशौच हो गया तो पहले मरणाशौच के दस दिन के बाद दूसरे मरणाशौच के निमित्त दो दिन और मरणाशौच रहता है। यदि पूर्वोक्त रात के चौथे प्रहर में दूसरा मरणाशौच हो गया तो दूसरे मरणाशौच के लिए प्रथम मरणाशौच के बाद तीन दिन का मरणाशौच रहता है। क्रिया-कर्म करने वाले को तो पूरे दस दिन तक मरणाशौच रहता है।
(3) पिता के मरने के दस दिन के भीतर माता की भी मृत्यु होने पर पिता के मृत्यु दिवस के दस दिन से डेढ़ दिन (पक्षिणी) मरणाशौच अधिक रहता है। यह पक्षिणी अशौच दशम रात्रि के पूर्व में मरने पर होता है। दशम रात्रि के तीन प्रहर तक मृत्यु होने पर दो दिन का तथा चौथे प्रहर में मरने तक तीन दिन का ही अशौच होगा, पक्षिणी अशौच नहीं होगा।
(4) पिता के मरने के अनन्तर माता की मृत्यु हो जाए तो माता का पक्षिणी अथवा दो या तीन दिन का अधिक अशौच प्रवृत्त हो तो भी ग्यारहवें दिन पिता का आद्यश्राद्ध, महैकोदिष्ट, शय्यादान तथा वृषोत्सर्ग आदि कृत्य करने चाहिये। अन्य सपिण्डों के ग्यारहवें दिन आद्यश्राद्धादि के विषय में दोनों पक्ष हैं। कुछ का मत है करना चाहिए तथा कुछ का मत है नहीं। अत: देशाचार के अनुसार करना चाहिए।
(5) माता की मृत्यु के बाद दस दिन के भीतर पिता की मृत्यु हो जाए तो पिता के मरण दिन से पूरे दस दिन तक मरणाशौच रहता है अर्थात् माता के मरणाशौच की शुद्धि होने पर भी पिता के मरणाशौच की शुद्धि नहीं होती।
(6) किसी कारणवश मृत्यु दिवस के दिन दाह-संस्कार न हो सके और किसी दूसरे - दिन दाह-संस्कार करना पड़े तो भी मृत्यु दिन से ही गिनकर पूरे दस दिन का अशौच लगता है, किन्तु अग्निहोत्री के मरने पर दाह-संस्कार के दिन से ही दस दिन का अशौच लगता है।
दाहाद्यशौचं कर्त्तव्यं द्विजानामग्निहोत्रिणाम् (कूर्मपुराण २३-६१)
(7) किसी कारणवश माता-पिता का दस दिन के भीतर ही पुत्तलदाह करना पड़े और उसका पहले शौच सम्बन्धी कार्यक्रम नहीं किया हो तो मरण दिन से पूरे दस दिन का अशौच रहता है। मृत्यु दिवस से दस दिन के बाद माता-पिता का पुत्तलदाह करके कार्यक्रम करना पड़े तो पुत्र और पत्नी को दाह-संस्कार के दिन से पूरे दस दिन का अशौच रहता है। माता-पिता के अतिरिक्त यदि दस दिन के अनन्तर किसी का पुत्तल दाह करना पड़े तो तीन दिन का अशौच होता है।
(8) माता-पिता के मरने पर अविवाहित लड़की को तीन दिन का अशौच लगता है।
(9) घर में जब तक शव रहे तब तक वहाँ अन्य गोत्रियों को भी अशौच रहता है।
(10) एक जाति के व्यक्ति यदि किसी शव को कन्धा देते हैं, उसके घर में रहते हैं और वहाँ भोजन करते हैं तो उन्हें भी दस दिन का अशौच रहेगा यदि वे केवल भोजन-मात्र करते हैं अथवा मात्र गृहवास करते हैं तो उन्हें तीन रात का अशौच लगेगा। यदि केवल शव को कन्धा देते हैं तो उन्हें एक दिन का अशौच लगता है।
(11) दिन में शव का दाह-संस्कार होने पर शव यात्रा में शामिल होने वाले लोगों को सूर्यास्त होने के पूर्व तक अशौच रहता है। सूर्यास्त होने पर नक्षत्र-दर्शन के अनन्तर स्नान आदि करके यज्ञोपवीत बदल देना चाहिए। रात्रि में दाह-संस्कार होने पर सूर्योदय के पूर्व तक का अशौच होता है।
बालकों की मृत्यु पर अशौच-विचार -
(1) नाल कटने के बाद नामकरण के पूर्व अर्थात् बारह दिन के भीतर यदि बालक मर गया बन्धुवर्ग स्नान मात्र से मरणाशौच से निवृत्त हो जाते हैं माता-पिता को पुत्र के मरने पर तीन रात्रि का तथा कन्या के मरने पर एक दिन का अशौच रहता है, परन्तु जननाशौच पूरे दस दिन तक रहता है।
(2) नामकरण के पश्चात् दाँत के उत्पत्ति (छ: मास)-के पूर्व बालक के मरने पर बन्धुवर्ग स्नान मात्र से शुद्ध हो जाते हैं माता-पिता को पुत्र के मरने पर तीन रात्रि का तथा कन्या के मरने पर एक दिन का अशौच रहता है।
(3) दाँत की उत्पत्ति तथा चूडाकर्म (मुंडन-संस्कार-तीन वर्ष) हो चुके बालक के मरने पर माता-पिता को तीन दिन का मरणाशौच लगता है और सपिण्ड को एक दिन का मरणाशौच लगता है।
(4) नामकरण के बाद उपनयन-संस्कार के पहले मरने पर तीन दिन का मरणाशौच रहता है।
(5) उपनयन-संस्कार होने के बाद मृत्यु होने पर सात पुश्त के भीतर के लोगों को दस दिन का मरणाशौच रहता है। चूँकि ब्राह्मण बालक के उपनयन का मुख्य काल आठ वर्ष का है। अत: आठ वर्ष की अवस्था हो जाने पर उपनयन न होने पर भी बालक की मृत्यु होने पर पूरे दस दिन का मरणाशौच रहता है। इसी प्रकार अन्य वर्णों के लिए भी उपनयन के लिए निर्धारित मुख्य काल के अनन्तर उपनयन न होने पर भी बालक की मृत्यु होने पर दस दिन का मरणाशौच रहता है।
(6) अनुपनीत बालक तथा अविवाहित कन्या को माता और पिता के मरने पर ही दस दिन का अशौच होता है। अन्य सगोत्रियों के मरने पर कोई अशौच नहीं होता।
बालकों के श्राद्ध की व्यवस्था -
(1) दो वर्ष के पूर्व के बालक का कोई श्राद्ध तथा जलांजलि आदि क्रिया करने की आवश्यकता नहीं है।
(2) दो वर्ष पूर्ण हो जाने पर छ: वर्ष के पूर्व तक केवल श्राद्ध की पूर्वक्रिया अर्थात् मलिन षोडशी तक की क्रिया करनी चाहिए। इसके बाद की अर्थात् एकादशाह तथा द्वादशाह की क्रिया करने की आवश्यकता नहीं है।
(3) छ: वर्ष के बाद श्राद्ध की सम्पूर्ण क्रिया अर्थात् मलिनषोडशी, एकादशाह तथा सपिण्डन आदि क्रिया करनी चाहिए।
(4) कन्या का दो वर्ष से लेकर विवाह के पूर्व (अर्थात् दस वर्ष तक) पूर्व क्रिया अर्थात मलिन षोडशी तक की क्रिया करनी चाहिए तथा विवाह के अनन्तर अर्थात् दस वर्ष के बाद सम्पूर्ण क्रिया अर्थात् मलिनषोडशी, एकादशाह तथा सपिण्डन आदि क्रियायें करनी चाहिए।
गया श्राद्ध तथा बदरीनारायण में ब्रह्मकपाली-श्राद्ध पर विचार -
गया में श्राद्ध करने की अत्यधिक महिमा है। शास्त्रों में लिखा है-
जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात्।
गयायां पिण्ड दान अच्च विधि पुत्रस्य पुत्रता ।। (श्रीमद् देवी भागवत)
अर्थ - जीवन पर्यन्त माता-पिता की आज्ञा का पालन करने, श्राद्ध में खूब भोजन कराने और गया तीर्थ में पितरों का पिंडदान अथवा गया में श्राद्ध करने वाले पुत्र का पुत्रत्व सार्थक है।
'गयाभिगमनं कर्तुं यः शक्तो नाभिगच्छति।
शोचन्ति पितरस्तस्य वृथा तेषां परिश्रम:।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ब्राह्मणस्तु विशेषतः।
प्रदद्याद् विधिवत् पिण्डान् गया गत्वा समाहितः।
अर्थ - जो गया जाने में समर्थ होते हुए भी नहीं जाता है, उसके पितर सोचते हैं कि उनका सम्पूर्ण परिश्रम निरर्थक है। अत: मनुष्य को पूरे प्रयत्न के साथ गया जाकर सावधानीपूर्वक विधि-विधान से पिंडदान करना चाहिये।' इन वचनों के अनुसार पितृ ऋण से मुक्तिहेतु गया श्राद्ध करने की अनिवार्यता के कारण और उसके न करने से पाप लगने के कारण जीवित समर्थ पुरुष को गया में पिंडदान तथा श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। प्राचीन काल में जहाँ ब्रह्मा का सिर: कपाल गिरा था, वहाँ बदरी क्षेत्र में पिण्डदान करने का विशेष महत्त्व है। सनत्कुमारसंहिता में यह वचन आता है-
'शिरःकपालं नारदैतन्मयोदितम्।।
अर्थात् प्राचीन काल में जहाँ ब्रह्मा का शिर:कपाल गिरा था, वहां बदरी क्षेत्र में जो पुरुष पिंडदान करने में समर्थ हुआ, यदि वह मोह के वशीभूत होकर गया में पिंडदान करता है तो वह अपने पितरों का अध: पतन का देता है और उनसे शापित होता है| अर्थात् पितर उसका अनिष्ट-चिन्तन करते हैं। हे नारद ! मैंने आपसे यह कह दिया, इस वचन के अनुसार बदरीक्षेत्र में ब्रह्म कपाली में पिंडदान करने के बाद गया में पिण्डदान करने का निषेध प्रतीत होता है। यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है।
परन्तु मुख्य पक्ष यही है कि पूर्व में गया में पिंडदान श्राद्ध सम्पन्न करने के बाद ही बदरी क्षेत्र में ब्रह्मकपाली में श्राद्ध करना चाहिये।
कुछ लोगों में यह भ्रमात्मक प्रचार है कि गया श्राद्ध के बाद वार्षिक श्राद्ध आदि करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु यह विचार पूर्ण रूप से गलत है। गया श्राद्ध तो नित्य श्राद्ध है, इसे एक बार से अधिक भी गया जाकर किया जा सकता है। गया श्राद्ध करने के बाद भी घर में वार्षिक, क्षयाहश्राद्ध तथा पितृपक्ष के श्राद्ध आदि सभी श्राद्ध करने चाहिये, छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।